पॉपुलर कल्चर और पब्लिक स्फेयर में अपराध कथाओं की एक ख़ास जगह है. इसमें पाठक या दर्शक सिर्फ़ भावनात्मक तौर पर ही प्रतिक्रिया नहीं देता है, बल्कि वह एक गवाह, खोजी और जज की भूमिका में भी होता है.
वेब सीरिज़ में सेक्स और हिंसा
अवांछित, अपमानजनक और अश्लील सामग्री के लिए अकेले सीरिज़ निर्माताओं पर दोष नहीं मढ़ा जा सकता है.
वर्तमान के विद्रूप का चित्रण ‘गुलाबो सिताबो’
अनुराग कश्यप की हालिया फ़िल्म ‘चोक्ड’ के साथ ‘गुलाबो सिताबो’ को रखकर देखें, तो यही लगता है कि हमारे दौर की विडंबनाओं को कथा में कहना अब लगातार मुश्किल होता जा रहा है.
‘जितना अपनी पैंट खोलते हो, उतना ही दिमाग भी खोलो’!
सेक्सुअलिटी की इस तरह की सतही समझ से दमित सेक्सुअलिटी को कुछ होना होता, तो दादा कोंड़के से लेकर भोजपुरी सिनेमा के भौंड़ेपन ने अब तक क्रांति कर दी होती!
1950 के दशक के पॉपुलर मेलोड्रामा और नेहरूवियन राजनीति
नेहरु के व्यक्तित्व और उनके विचारों को तथा हिंदुस्तानी सिनेमा में उसके चित्रण को ठीक से समझने के लिए विस्तार से लिखे और पढ़े जाने की ज़रूरत है।
भारतीय सिनेमा के पितामह दादा साहेब
सिनेमा हमारे सांस्कृतिक जीवन का एक अहम हिस्सा है, परंतु उसके इतिहास को लेकर हम कुछ कम गंभीर हैं.
The 1930s of Indian Cinema and Gender Questions
Few articles on cinema written by women and some reports and comments published in various periodicals in the 1930s give us a fair idea of the public sphere.
पिया बिन नहिं आवत चैन
देवदास के सारे संस्करणों में कथानक लगभग एक जैसा है लेकिन निर्देशकों-अभिनेताओं की अपनी क्षमताओं ने हर फिल्म में कुछ जोड़ा है.
Early Decades of Indian Cinema and National Leaders
By 1930, the national movement entered into a phase of intense activity, and from 1931, Indian films started to speak in various languages.
मंटो के नाम ख़त: वो बात उनको बहुत नागवार गुजरी है
अगर हमारे नेता तुम्हारी तस्वीर पर फूल-माला चढ़ाते तो क्या तुम्हें अच्छा लगता!
इंडियन रूम: सिनेमाई इतिहास की कुछ परतें
नज़मुल हसन की याद है किसी को? लखनऊ का वही नज़मुल, जो बॉम्बे टॉकीज़ के मालिक हिमांशु रॉय की नज़रों के सामने से उनकी पत्नी और मायानगरी की सबसे खूबसूरत नायिका देविका रानी को उड़ा ले गया था.
नेक्रोफिलिया है ‘द डर्टी पिक्चर’
अब तक पुरुष पुरुष होने की ग्रंथि से पीड़ित था, अब वह नेक्रोफिलिया का रोगी है. चिंता तब बढ़ जाती है जब यह रोग सामूहिक हो जाता है.
हिंदी सिनेमा में लैला-मजनूँ
सबसे पहले मूक फ़िल्मों के दौर में मदान थिएटर के बैनर से 1922 में लैला-मजनूँ की कहानी को परदे पर उतारा गया.
अपने ही जाल में उलझा भोजपुरी सिनेमा
जैसे बिहार और पूर्वांचल की राजनीति पिछड़ेपन, भ्रष्टाचार और अन्याय के मुद्दों पर बतकही से चलती है, वैसे ही भोजपुरी सिनेमा की विषय-वस्तु भी इन मुद्दों को सतही तरीके से अभिव्यक्त करती है.
वी. शांताराम: भारतीय सिनेमा के अण्णा साहेब
शांताराम की उपलब्धियों और उनके महत्व का आकलन ठीक से तभी हो सकता है, जब हम उनकी फिल्मों के साथ-साथ सिनेमाई इतिहास में उनके योगदान को हर आयाम से समझने का प्रयास करें.
Talking Gulzar
When writings on Indian cinema is either confined to stars or based on the imported theories, this book is a great addition.
Cinematic Secularism of Dharmputra
Dharmputra (Yash Chopra, 1961) is one of the most remarkable films that engage with the problematic theme of communalism set against the background of Partition of India.