शराबबंदी की सनक का एक और पहलू है पारंपरिक मादक पेय पदार्थों पर रोक.
डॉ सर सर्वपल्ली राधाकृष्णन की जयंती पर ऐतिहासिक दस्तावेज़ों से कुछ विवरण
उन्होंने बनारस हिंदू विश्वविद्यालय पर एक फ़िल्म बनाने की फ़िल्म इंडिया की सलाह और उसके लिए धन जुटाने में मदद पर भी हामी भरी थी.
नाराज़गी, नफ़रत और नकार पर टिका है सोशल मीडिया का कारोबार
सोशल मीडिया नाराज़गी से चलता है और आप चाहे जो कुछ कर लें, आप अपने बच्चों को इससे बचा नहीं सकते हैं.
शोले के बहाने
जब 15 अगस्त को शोले रिलीज़ हुई, दीवार मेगा हिट हो चुकी थी और थियेटरों में अब भी जय संतोषी माँ का जलवानुमा थी.
ईश्वर और उनके पैगंबरों को लठैतों की जरूरत नहीं!
सबसे पहले तो यह जानना जरूरी है कि ब्लासफेमी का कोई धार्मिक आधार नहीं है। किसी भी धर्म के मूल ग्रंथों में इस ‘अपराध’ का उल्लेख तक नहीं है।
स्वच्छ ऊर्जा के नाम पर लीथियम की लूट
इस सदी का इतिहास बहुत हद तक व्हाइट गोल्ड यानी लीथियम पर निर्भर करेगा.
जनसंख्या नियंत्रण की पुरानी बकवास
बर्थ कंट्रोल की चिंता एक बहुत पुराना शग़ल है.
On Yash Chopra / यश चोपड़ा के बारे में
यश चोपड़ा के बारे में एक टिप्पणी हिंदी और English में पढ़ने के लिए इन लिंक को चटकाएँ.
दक्षिणपंथी उभार के लिए उदारवादी लापरवाही ज़िम्मेदार
यह एक स्थापित तथ्य है कि उग्र-राष्ट्रवादी और दक्षिणपंथी राजनीति का सामना प्रगतिशील राजनीति के द्वारा ही किया जा सकता है.
ट्रंप के लिए नुक़सानदेह हो सकते हैं बोल्टन के दावे
ट्रंप प्रशासन में राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार रहे जॉन बोल्टन अपनी किताब में ख़तरनाक दावे कर रहे हैं.
Delhi Crime: ऐसी अपराध कथा जिसमें अपराधियों के लिए जगह ही नहीं है!
पॉपुलर कल्चर और पब्लिक स्फेयर में अपराध कथाओं की एक ख़ास जगह है. इसमें पाठक या दर्शक सिर्फ़ भावनात्मक तौर पर ही प्रतिक्रिया नहीं देता है, बल्कि वह एक गवाह, खोजी और जज की भूमिका में भी होता है.
वेब सीरिज़ में सेक्स और हिंसा
अवांछित, अपमानजनक और अश्लील सामग्री के लिए अकेले सीरिज़ निर्माताओं पर दोष नहीं मढ़ा जा सकता है.
वर्तमान के विद्रूप का चित्रण ‘गुलाबो सिताबो’
अनुराग कश्यप की हालिया फ़िल्म ‘चोक्ड’ के साथ ‘गुलाबो सिताबो’ को रखकर देखें, तो यही लगता है कि हमारे दौर की विडंबनाओं को कथा में कहना अब लगातार मुश्किल होता जा रहा है.
‘जितना अपनी पैंट खोलते हो, उतना ही दिमाग भी खोलो’!
सेक्सुअलिटी की इस तरह की सतही समझ से दमित सेक्सुअलिटी को कुछ होना होता, तो दादा कोंड़के से लेकर भोजपुरी सिनेमा के भौंड़ेपन ने अब तक क्रांति कर दी होती!
1950 के दशक के पॉपुलर मेलोड्रामा और नेहरूवियन राजनीति
नेहरु के व्यक्तित्व और उनके विचारों को तथा हिंदुस्तानी सिनेमा में उसके चित्रण को ठीक से समझने के लिए विस्तार से लिखे और पढ़े जाने की ज़रूरत है।
भारतीय सिनेमा के पितामह दादा साहेब
सिनेमा हमारे सांस्कृतिक जीवन का एक अहम हिस्सा है, परंतु उसके इतिहास को लेकर हम कुछ कम गंभीर हैं.
The 1930s of Indian Cinema and Gender Questions
Few articles on cinema written by women and some reports and comments published in various periodicals in the 1930s give us a fair idea of the public sphere.
पिया बिन नहिं आवत चैन
देवदास के सारे संस्करणों में कथानक लगभग एक जैसा है लेकिन निर्देशकों-अभिनेताओं की अपनी क्षमताओं ने हर फिल्म में कुछ जोड़ा है.
Early Decades of Indian Cinema and National Leaders
By 1930, the national movement entered into a phase of intense activity, and from 1931, Indian films started to speak in various languages.
मंटो के नाम ख़त: वो बात उनको बहुत नागवार गुजरी है
अगर हमारे नेता तुम्हारी तस्वीर पर फूल-माला चढ़ाते तो क्या तुम्हें अच्छा लगता!