जब भारत में 1990 के दशक के प्रारंभिक वर्षों में नव-उदारवादी आर्थिक प्रक्रिया धूमधाम से शुरू हुई थी, तब एक जुमला खूब उछाला जाता था- देयर इज नो ऑल्टरनेटिव (TINA), यानी कोई और विकल्प नहीं है. इस जुमले का असर होना स्वाभाविक था क्योंकि बीसवीं सदी के सभी समाजवादी परियोजनाएँ असफल साबित हुई थीं और, जैसा कि दार्शनिक स्लावोज जिजेक कहते हैं, चीन या वियतनाम जैसे देशों में जो साम्यवादी शासन है, वह ‘एक बहुत उग्र उत्पादक पूँजीवाद’ का सर्वाधिक सक्षम प्रबंधक है. कथित उदारीकरण-निजीकरण-वैश्वीकरण (एलपीजी) के आगमन से पूर्व जो कल्याणकारी राज्य था, उसे कायम रहने की स्थितियां भी बदल चुकी थीं. जिजेक ने रेखांकित किया है कि मौजूदा वैश्विक अर्थव्यवस्था में कल्याणकारी राज्य बचा भी नहीं रह सकता था क्योंकि उसके लिए एक मजबूत राष्ट्र-राज्य का होना जरूरी है जो ठोस वित्तीय राजनीति को लागू कर सके. नयी आर्थिक नीतियों के साथ जनता को बड़े-बड़े सपने दिखाये गये थे. लेकिन, उन्हें पूरा किया जाना न तो संभव था, न ही भाग्य-विधाताओं की मंशा ऐसा करने की थी.
तब दो और जुमले उछाले गये- सुशासन (Good Governance) और मानवीय चेहरे के साथ वृद्धि (Growth with A Human Face). अब मुनाफे और सार्वजनिक संसाधनों की लूट और उनके कुछ ही हाथों में सीमित होने की पूँजीवादी व्यवस्था में ये जुमले भी नाकाम होने थे. आर्थिक विषमता, वंचना और शोषण के कहर को समझने के लिए अर्थशास्त्री या राजनीतिक आर्थिकी का विद्वान होना जरूरी नहीं है. धूमिल ने बहुत पहले ही कह दिया है- ‘लोहे का स्वाद लोहार से मत पूछो/उस घोड़े से पूछो जिसके मुँह में लगाम है’. बहरहाल, पूँजीवादी तंत्र को अब नैतिक तर्कों के सहारे की जरूरत पड़ रही है जिसे हमारे देश में प्रधानमंत्री और रिजर्व बैंक के गवर्नर के बयानों में देखा जा सकता है. इन पर विचार करने से पहले मौजूदा आर्थिक परिदृश्य का थोड़ा जायजा लिया जाये.
आईये, 25 सालों की नव-उदारवादी यात्रा के परिणामों पर नजर डालें. क्रेडिट स्विस की हालिया रिपोर्ट (अक्टूबर, 2015) बताती है कि भारत के एक फीसदी सर्वाधिक धनी लोगों के पास देश की 53 फीसदी संपत्ति तथा 10 फीसदी सर्वाधिक धनी लोगों के पास देश की 76.30 फीसदी संपत्ति है. इसका मतलब यह है कि देश की 90 फीसदी आबादी यानी करीब एक अरब से अधिक लोगों के हिस्से में एक चौथाई से कम राष्ट्रीय संपत्ति है. पंद्रह साल पहले यानी 2000 में राष्ट्रीय संपत्ति में एक फीसदी सर्वाधिक धनिकों का हिस्सा 36.80 फीसदी और 10 फीसदी सर्वाधिक धनिकों का हिस्सा 65.9 फीसदी था.

कुछ साल पहले वित्त मामलों की संसदीय स्थायी समिति ने अपनी 59वीं रिपोर्ट में वृद्धि के तौर-तरीकों की आलोचना करते हुए कहा था कि आर्थिक वृद्धि के लाभ से अधिकाधिक लोगों को वंचित रखा जा रहा है और कुछ ही लोगों के पास संचित होता जा रहा है. इससे बिल्कुल साफ है कि इस देश का राजनीतिक नेतृत्व पूरे हालात से वाकिफ है. आर्थिक विषमता, शोषण और वंचना को इंगित करनेवाली कई अन्य सूचनाएं भी हैं, लेकिन इसका सही अंदाजा लगा पाना बहुत मुश्किल है. अर्थशास्त्री थॉमस पिकेट्टी का कहना है कि भारत सरकार जरूरी आंकड़े सार्वजनिक ही नहीं करती है.
बहरहाल, सवाल यह है कि सरकार विषमता को रोक नहीं पा रही है या फिर रोकना ही नहीं चाहती है. या, फिर वही इस पूरी प्रक्रिया का प्रबंधन कर रही है या उसने देश की किस्मत वैश्विक और घरेलू कंपनियों के भरोसे छोड़ दिया है?
इस संदर्भ में कार्ल मार्क्स की एक रोचक टिप्पणी उल्लेखनीय है, जो उन्होंने न्यूयॉर्क ट्रिब्यून के 1853 के एक लेख में लिखा था- ‘निःसंदेह भारत के गवर्नर जेनरल के हाथ में सर्वोच्च सत्ता है, लेकिन वह गवर्नर अपनी घरेलू सरकार द्वारा शासित होता है. यह घरेलू सरकार कौन है? क्या वह नियंत्रण बोर्ड के अध्यक्ष पद जैसे विनम्र पद की आड़ में छुपा भारतीय मंत्री है, या वह इस्ट इंडिया कंपनी के 24 निदेशकों का समूह है? भारतीय धर्म के केंद्र में त्रिमूर्ति की अवधारणा है, और यहाँ भारतीय सरकार के केंद्र में हम एक पवित्र त्रिमूर्ति देख रहे हैं.’ लेख के आखिर में उन्होंने लिखा है- ‘लीडेनहॉल स्ट्रीट और कैनन-रो (दफ्तरों के नाम) का क्लर्की-तंत्र भारतीय लोगों को 1.60 लाख पौंड सालाना का चूना लगाता है. सत्ताधीश भारत को युद्धों में उलझाये रहते हैं ताकि उनके जवान बच्चों के रोजगार का जुगाड़ हो सके, धनिक तंत्र भारत को सबसे अधिक बोली लगानेवालों के हाथ ठेके पर देता है, और एक मातहत नौकरशाही उसके प्रशासन को लकवाग्रस्त करके रखती है और अपने को बरकरार रखने के लिए उसके शोषण को भी जारी रखती है.’
लूट तंत्र की संरचना और गतिविधियों में मार्क्स से आज तक जो बदलाव आया है, उसे मेक्सिको के जापातिस्ता आंदोलन के मार्कोस ने 1997 के एक लेख में इस तरह से बयान किया था- ‘वैश्वीकरण के कैबरे में राज्य की भूमिका टेबल पर नाचनेवाले/वाली के रूप में है जो अपने बदन से हर कपड़ा उतार देता/देती है, सिवाये एक वस्त्र के जिसे उतारा नहीं जा सकता है- और वह है उसकी दमनकारी ताकत’. राज्य की प्रकृति के बारे में इससे अंदाजा लगाया जा सकता है.
लेकिन इस विवेचना का मतलब विभिन्न राजनीति धड़ों या विचारधाराओं- दक्षिण, उदारवादी, वाम, समाजवादी आदि- पर वादाखिलाफी या जनता को धोखा देने का सतही आरोप लगाना नहीं है. वे धोखा देने की स्थिति में भी नहीं है. दरअसल, पूँजी के संरचनात्मक आकार और प्रभाव का विस्तार हो रहा है. जिजेक कहते हैं कि पूँजीवाद आज इतना सक्षम हो चुका है कि उसे लोकतंत्र की जरूरत भी अब नहीं है. उनकी भविष्यवाणी है कि दोनों का संबंध-विच्छेद बहुत जल्दी हो जायेगा. इस प्रक्रिया को हम रोजमर्रा में घटित होते देख सकते हैं. परंतु पूँजीवाद स्वयं को बहाल रखने और मजबूत करने के तर्क तो देता ही रहेगा.
बस अब यह हो रहा है कि वह आर्थिक तर्क नहीं दे पा रहा है क्योंकि उसके पुराने सभी वादे असफल रहे हैं. प्रोफेसर डेविड ग्रैबर के अनुसार, सबसे दमनकारी तथ्य को उम्मीद जगानेवाले कारक के रूप में प्रयुक्त करना हमेशा संभव है. इस संदर्भ में, यूरोप का संकट बताता है कि पूँजीवाद के बने रहने के पारंपरिक तर्क अब प्रभावी नहीं हैं.
यह सही है कि पूँजीवाद ने हमेशा ही भयावह विषमताएँ पैदा की है, लेकिन उसे संतुलित करने के लिए उसके पास तीन प्रमुख राजनीतिक तर्क थे. पहला, चुआऊ (ट्रिकल डाउन) अर्थशास्त्र, यह सोच कि अगर धनी और धनी होंगे, तो समाज का गरीब तबका भी बेहतर स्थिति में होगा. लेकिन ऐसा नहीं हुआ. दूसरा, पूँजीवाद स्थिरता लाता है. ऐसा भी नहीं है. तीसरा, इससे तकनीकी नवोन्मेष को बढ़ावा मिलेगा. यह भी नहीं हुआ.
तो, अब पूँजीवाद के समर्थकों के पास कहने के लिए क्या बचा है, जब सभी व्यावहारिक तर्क बेमानी हो गये? उनके पास पूरी तरह से नैतिक तर्कों के पास लौटने के और कोई चारा बचा ही नहीं है, जो कि कर्ज की विचारधारा है (जो लोग चुकता नहीं करते, उनका कर्ज बुरा है), और यह विचार है कि आप अपने पसंदीदा काम में जितनी मेहनत करते, अगर उतनी मेहनत नहीं कर रहे हैं, तो आप बुरे व्यक्ति हैं’. ग्रैबर की बात को हम प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन के बयानों के संदर्भ में समझने की कोशिश करते हैं.
गवर्नर रघुराम राजन कई बार सार्वजनिक तौर पर बड़े उद्योगपतियों को कर्ज नहीं चुकाने के लिए भला-बुरा कह चुके हैं. अक्सर उनकी भाषा गंवई महाजनों जैसी होती है. और, यह स्वाभाविक भी है क्योंकि बैंकिंग प्रणाली महाजनी और सूदखोरी का ही विस्तार है. इतिहास देख लीजिये, सबसे पहले बैंकों की स्थापना सूदखोरों ने ही की थी. यह पुश्तैनी धंधा अब भी बरकरार है. जैसा कि अक्सर होता है, मीडिया और कथित समझदारों ने राजन की प्रशंसा में कसीदे काढ़ने शुरू कर दिया. लेकिन हुआ क्या? हुआ वही जो होता है. दो फरवरी को फंसे हुए कर्जों से संबंधित कथित नियमों में ढील देने की घोषणा खुद महानुभाव ने कर दी ताकि निवेशकों की ‘चिंता’ दूर की जा सके. अब आप खुद ही अनुमान लगायें कि किसकी और कौन सी चिंता अधिक महत्वपूर्ण है.
पिछले दिनों उद्योगपतियों की एक बैठक में प्रधानमंत्री ने कहा कि सरकार आपको सहयोग देती है तो उसे ‘इंसेंटिव’ कहा जाता है, पर जब गरीबों या किसानों को सब्सिडी दी जाती है, तो उसे ‘बोझ’ कह दिया जाता है. इस प्रवृत्ति की आलोचना करते हुए उन्होंने ‘सही’ सब्सिडी जारी रखने और ‘खराब’ सब्सिडी हटाने की बात कही. पूँजीपतियों को नैतिकता पढ़ाने के इस बयान की भी खूब वाहवाही हुई. दिलचस्प है कि आर्थिक नीतियों और आर्थिक व्यवस्था की आलोचना करनेवाले भी इस प्रपंच में फंस जाते हैं. तो, कुल मिलाकर नतीजा क्या रहेगा? ‘बैड लोन’ बढ़ते रहेंगे, ‘इंसेंटिव’ दिया जाता रहेगा, ‘सब्सिडी’ के नाम पर आपको झुनझुना पकड़ाया जाता रहेगा.
कुछ दिन पहले टाटा ट्रस्ट के प्रमुख रतन टाटा ने कंपनी की पत्रिका में एक साक्षात्कार देते हुए देश की एकता पर प्रवचन ही झाड़ दिया और लोगों पर आपस में बंटे होने की तोहमत मढ़ दी. उनकी सबसे बड़ी इच्छा है ‘अपने देश पर गर्व करना जब वह ‘समान-अवसर के राष्ट्र’ के रूप में स्थापित हो जाए. विषमता, शोषण और दमन के किसी मामले पर इन महानुभाव को आपने बोलते सुना है?
रैंडॉल्फ बॉर्ने के विचारों के आधार पर डैन सांचेज ने लिखा है कि राज्य सरकार द्वारा उत्पीड़ित लोगों में जीवित रहता है. वहीं उसका बसेरा है. बॉर्ने ने राज्य को इस तरह से परिभाषित किया हैः ‘राज्य एक झुंड का संगठन है जो अपने ही तरह के दूसरे संगठित झुंड के विरुद्ध आक्रामक या रक्षात्मक तौर पर सक्रिय होता है.’ सांचेज स्पष्ट करते हैं कि सरकार को बदल देने से झुंड की परेशानियां यानी उसका उत्पीड़न कम नहीं होता है. इस बदलाव से राज्य को ताकत ही मिलती है. संकट में झुंड अधिक भयाक्रांत होने के कारण और अधिक सघन होता है. ऐसे में झुंड के नये सरदार के पास उत्पीड़न की अपेक्षाकृत अधिक ताकत होती है.
सरकारों के पास अधिक कुछ करने के लिए तो बचा नहीं है क्योंकि आर्थिक नियंत्रण तो वित्तीय संस्थाओं के पास है जो वैश्विक स्तर पर सक्रिय हैं, ऐसे में सरकारें सिर्फ दमनकारी की भूमिका ही निभाती हैं, जैसा कि ऊपर उल्लिखित मार्कोस के कथन में रेखांकित किया गया है.
(फरवरी, 2016 में लिखा यह ब्लॉग बरगद पर तब प्रकाशित हुआ था.)
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