टिन्नी जी! ओ टिन्नी जी!
ये लो एक चवन्नी जी!
बज्जी से प्यारा-प्यारा,
लाना छोटा गुब्बारा,
ऊपर उसे उड़ाएँगे.
आसमान पहुचाएँगे.
-रमेश तैलंग
सुबह मैंने एक मित्र से थोड़ा सैड-सेंटी भाव में चवन्नी की विदाई की चर्चा की. तपाक से उनका जवाब था- तुम्हारे जैसे सिनिकल लोगों की यही दिक्कत है. देश बढ़ रहा है, देश के बढ़ने की दर बढ़ रही है और तुम चवन्नी के फेर में पड़े हो. बात सही भी है. जहाँ हजार करोड़ से नीचे बात करने का फैशन ना हो, वहाँ चवन्नी को लेकर सीरियस होना फजूल है. आखिर कब तक आदमी अपने होने का मतलब यादों के इडीअट बॉक्स में ढूंढें! लेकिन परेशानी तो यह है कि हम उतने व्यवहारिक भी नहीं हो पाए हैं कि सब कुछ आज के सन्दर्भ में ही समझ सकें. खैर, चवन्नी का चलन आज से बंद हो जायेगा. सरकार का कहना है कि ऐसा स्टील की कीमतों के बढ़ने और मुद्रास्फीति की मजबूती के कारण किया जा रहा है.
अब हमें तो अर्थशास्त्र का ज्ञान है नहीं और फिर सरकार कह रही है, तो सही ही कह रही होगी. यह बात और है कि प्रशांत भूषण बताते हैं कि चवन्नी तो छोड़िये, सरकार खुद ही लोहे को कौड़ियों के दाम में बेच रही है. इस मसले पर बात को आगे बढ़ाएंगे तो आप को विकास-विरोधी, माओवादी समर्थक, ओल्ड-फैशन मार्क्सवादी भी कहा जा सकता है.
बहरहाल, चवन्नी तो विदा हो रही है, लेकिन हमारे संस्कृति के नुक्कड़ों पर उसकी मौजूदगी बनी रहेगी. चवन्नी नहीं रहेगी, लेकिन चवन्नी-छाप रहेंगे. राजनीति के बारे में चर्चा होगी, तो आजादी की लड़ाई में चवन्निया मेम्बरी के माध्यम से लोगों को कॉंग्रेस के बैनर के तले इकठ्ठा करने की जुगत की चर्चा जरूर होगी. चवन्नी बचा बचा कर सिनेमा जाने का भगत सिंह का जुगाड़ भी बार-बार याद आएगा. बचपन के गुल्लकों में गिरती चवन्नी की झन की आवाज इस अपव्ययी समय में भी बची हुई है. और, वह चुटकुला भी तो रहेगा, जिसमें कहा जाता है कि हद है, यहाँ लोग ऐसे थूकते हैं कि चवन्नी का भ्रम होता है. जावेद अख्तर और अजय ब्रह्मात्मज की चिंताओं में तो कम-से-कम चवन्निया दर्शक बचा रहेगा.
मित्र प्रशांत राज फेसबुक पर लिखते हैं कि ‘दे दे मेरा पांच रुपैया बारह आना…’ अब बस एक गाना भर रह जायेगा. क्या करें, आना, सवैया, पहाड़े में जिंदगी का हिसाब लगानेवाला समाज भी तो नहीं रहा. अब तो डिजिटल का जमाना है, जहाँ ‘शून्य’ और ‘एक’ हैं. और फिर हमारी सरकार की ऑफीसियल जिद है, जितना जल्दी हो सके, देश की अस्सी प्रतिशत आबादी को शहरी बना देना है. अब शहर में चवन्नी का मतलब क्या है! वो तो हिसाब-किताब की मजबूरी है, नहीं तो अट्ठन्नी भी कभी की गायब हो गयी होती. वैसे उसके दिन भी गिनती के हैं.
आर्थिक महाशक्तियां चिल्लर नहीं रखतीं. खुल्ले के फेर में इस दुकान से उस दुकान चक्कर नहीं लगातीं. खुलेपन के दौर में खुल्ले उम्मीद ना करें. यह बात और है कि आज भी बड़ी आबादी का निपटान खुले में ही होता है. खुलापन एक व्यापक और विचित्र फेनोमेना है. रही बात उनकी, जो हमारा भाग्य लिखते-बांचते हैं, उनके बाथरूम का नलका चौबीस घंटे के समाचार चैनल की तरह चलना चाहिए. बाकी लोक इंद्र देवता की कृपा के लिये हवन करें और बच-खुचा चिल्लर पुरोहित की थाली में डाल दें.
कैसा रहा होगा वह समाज, जो कौड़ियों से अपने धन का हिसाब लगा लेता था! कितना धन था उस समाज के पास? क्या वह दरिद्र था या बहुत धनी? क्या वह भूख से मरता था? क्या कर्ज न चुका पाने के चलते वह खुदकुशी करता था? क्या वह अपने बच्चों को दूध ना दे पाने की स्थिति में देशी शराब देता था, जिससे वे सो जाएँ? क्या जमाखोरी, सूदखोरी, मुनाफाखोरी के दर्शन से परिचित था? जोड़ने-घटाने का उसका गणित कैसा था? वह कंजूस या कामचोर था? क्या उस समाज की सांस्कृतिक स्मृति या बची-खुची गंवई अनुभूति हममें से कईयों को इस आधुनिक दुनिया में पूरा-पूरा घुसने नहीं देती? या सच में इस आधुनिक से डरने की जरुरत है?
ख़ैर, बात चवन्नी की हो रही थी. मुझे महंगाई का अर्थशास्त्र समझ में नहीं आता. दरअसल मुझे अर्थशास्त्र ही समझ में नहीं आता. चवन्नी को बंद कर दिए जाने से बस मुझे वैसे ही बेचैनी हो रही है जैसे बचपन में कोई हाथ से खिलौना छीन लेता था. बाज़ार में सब्जियों के दाम देख कर गाँव की बाड़ी में लगे हुए टमाटर और लटकी हुईं लौकियाँ दीखने लगती हैं. आलू की खेत की मेढ़ पर आलू को पका कर खाना याद आ जाता है.
पता नहीं, आर्थिक आंकड़ों में क्या है, लेकिन यकीन मानिये, तब किसान ज्यादा सुखी था. अब नहीं हैं. बनिए और बिचौलिए तब भी मुनाफा बनाते थे और आज भी बनाते हैं. उत्पादन भी बढ़ा है. तो फिर कहीं तो कुछ और हो रहा है, जिसने चवन्नी की कीमत और जरुरत दोनों समाप्त कर दी! यह मैं कैसे समझूँ कि प्रति व्यक्ति आय बढ़ रही है और व्यक्ति गरीब हो रहा है? सकल घरेलू उत्पादन में लगातार बढ़ोतरी हो रही है और देश में अधिकतर लोगों के पास बुनियादी चीजें और सुविधाएं नहीं पहुँच रहीं. यह क्या चमत्कार है!
चवन्नी का जाना बचे खुचे का जाना है. हम आज कुछ और गरीब हुए हैं. बस एक चवन्नी छाप उम्मीद है, सो है…
(30 जून, 2011 को बरगद पर प्रकाशित)
Leave a Reply