आज़ादी मेरा ब्रांड/अनुराधा बेनीवाल/सार्थक-राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली/2016
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‘आज़ादी, आज़ादी, आज़ादी…’ के नारों की गूँज के बीच एक दिन अनुराधा बेनीवाल की किताब ‘आज़ादी मेरा ब्रांड’ पर नज़र गयी. अनमने ढंग से उठाया, बेमन से स्वानंद किरकिरे की भूमिका पढ़ना शुरू किया. शीर्षक देख कर चिढ़-सा गया. बहरहाल, पढ़ता गया, सोचता गया, यार, किरकिरे ने यूँ ही तो नहीं लिखा होगा! ‘उसे सिर्फ़ इतना पता है कि यहाँ समानता नहीं है और वह होनी चाहिए. और इतनी आसान-सी चीज़ का होना क्यों इतना मुश्किल है…!’ ये शब्द मैंने कई बार पढ़ा- ‘और इतनी आसान-सी चीज़ का होना क्यों इतना मुश्किल है…!’

बस, मेरी भी यात्रा शुरू हो गयी- पुणे, लंदन, पेरिस, ब्रस्सल्स, एम्स्टर्डम, बर्लिन, प्राग, ब्रातिस्लावा, बुडापेस्ट, इंसब्रुक, बर्न. बीच-बीच में लेखिका के साथ भारत लौटता, कभी उन दृश्यों को मन में उकेरता. पहाड़ी, पहाड़ी पर घर, सेब के बाग़ीचे, ज़मीन पर बेर की तरह गिरे सेब, नदियाँ, बार, कैफ़े, लोग, सड़कें, गलियाँ, गाड़ियाँ. उन शहरों के छिट-पुट दर्शन कराती अनुराधा भारतीय समाज और यूरोप के समाज के बीच एक संवाद रचती है. कहीं तल्ख़, कहीं नरम. बेबाकी भी है, कहीं हिचकती हुई उदासी भी. बारिश में भींगती, धूप में उँघती, दनादन चाय पीती, जाती, लौटती, ठहरती, फिर जाती, पहुँचती, फिर चलती.
हरियाणा से हज़ारों मील दूर भटकती अनुराधा खेड़ी में छूट गये अपने साये से बतकही भी करती जाती है. वह उस आसान चीज़ को महसूस करती है, छूती है, आह्लादित होती है, फिर उदास भी… ‘और इतनी आसान-सी चीज़ का होना क्यों इतना मुश्किल है!’ भारत और यूरोप के बीच के अंतर को पहचानती है, पर यह भी बताती है कि यूरोप के किसी-किसी कोने में वह हरियाणा, बल्कि भारत कहना ज़्यादा मुनासिब होगा, भी बस गया है जिसकी क़ैद से वह निकली है या निकलने की जुगत में है.
घुटन और मुक्ति के दास्तान भी हैं अनुराधा की डायरी में. वह अपने मेज़बानों की बात करती है, उनकी चर्चा करती है जिन्होंने उसे लिफ़्ट दी या फिर वह लड़की जिसके पास उसका गुम हुआ कैमरा था और जिसे लाने उसे सुबह जाना था, वह छोटी-छोटी कहानियाँ कहती जाती है, और यह सवाल अब हमारे मन में भी गूँजने लगता है- ‘और इतनी आसान-सी चीज़ का होना क्यों इतना मुश्किल है!’ अनुराधा याद दिलाती जाती है, घर-परिवार से लेकर चौक-चौराहे तक तथा राजनीति से लेकर धर्म तक पसरीं पहरेदारियां तहज़ीब की, हदें तमीज़ की… मन में यह भाव भी उठता है कि अनुराधा को कहें- देखो, हमारे यहाँ भी चीज़ें बदल रही हैं, या फिर यह कि हमारे समाज में, हमारी संस्कृति में और हमारी परंपराओं में बहुत-कुछ अच्छा भी है. पर क्या इन सभी तर्कों और चर्चाओं से इस सवाल का जवाब मिल जाता है- ‘और इतनी आसान-सी चीज़ का होना क्यों इतना मुश्किल है!’ नहीं.
अनुराधा सवाल करती है, तो क्या वह जवाब भी सुझाती है? कोई रास्ता भी बताती है? नहीं. हाँ. नहीं इसलिए कि वह कई सतहों पर अभी संवाद में है. वह प्रवचन से बचती है. वह सैद्धांतिकी की रस्साकशी से परहेज़ करती है. और हाँ इसलिए कि वह रास्ते पर चल पड़ी है, आज़ादी का ब्रांड पीठ पर टाँगे. वह इशारे-इशारे में मजरूह के ये लफ़्ज़ हमारे सामने रख देती है-
देख ज़िंदाँ से परे रंग-ए-चमन जोश-ए-बहार
रक़्स करना है तो फिर पाँव की ज़ंजीर न देख

उसकी आवारगी में लय है, उसकी घुमक्कड़ी में धुन है, बाहर-भीतर उठती तरंगों की ताल है. अनुराधा रक़्स में है. इस रक़्स में उम्मीदों की रवानी है. उसके रूमान से गुज़रना अपनी हदों से परे झाँकना है. इस लिहाज़ से अनुराधा की किताब को पढ़ना मेरे लिए मेरी अपनी बंदिशों से दो-चार होने का अहसास भी है. इस लिहाज़ से यह हमारे समाज को यह भी बता जाती है कि आज़ादियों को पहरे में रख कर कहीं हम ख़ुद अपनी आज़ादी से तो मरहूम नहीं हो चुके हैं!
हज़ारहा साल हमने इस पर दिमाग़ खपाया कि स्त्रियों को काबू में कैसे रखें. इस कोशिश में हमारा पूरा समाज बीमार होता गया, हम कुंदज़ेहन और बददिमाग़ होते गये, हम सिर्फ़ रूके ही नहीं, बल्कि हम बहुत छोटे से दायरे में महदूद रह गये. यूरोप के शहरों में बेपता घूमती यह हमारे पड़ोस की छोरी हमारे लिए नक़्शा उकेर रही है. वह बता रही है कि दुनिया बहुत बड़ी है. आज़ादी खोजती अनुराधा हमें ज़िंदगी का पता देती है. उफ़क पर उभरे धनक का इशारा देती है. कमाल देखिये, उसे अनजानों और ग़ैरज़बानों में अपने मिलते जाते हैं. यह सब कुछ यूँ है कि बस ग़ालिब ही बयान कर सकते हैं-
जब बतक़रीबे-सफ़र यार ने महमिल बांधा
तपिशे-शौक़ ने हर ज़र्रे पे इक दिल बांधा
(2016 में लिखी गयी टिप्पणी)
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