बर्लिनर के अपने ताज़ा इंटरव्यू में दार्शनिक स्लावोज़ ज़िज़ेक ने दार्शनिक जॉर्जियो आगम्बेन पर जो टिप्पणी की है कि उसे स्वीकारना मुश्किल है, भले ही वह बड़ी आबादी के मनोभाव के अनुकूल है. कोरोना महामारी को लेकर जैसी प्रतिक्रिया आगम्बेन ने की है, वह मनुष्य और सभ्यता के होने की मूलभूत प्रवृत्तियों से प्रेरित है, जबकि ज़िज़ेक महामारी से भयभीत नज़र आते हैं. वे ख़ुद कह रहे हैं कि वे अवसादग्रस्त स्थिति में हैं, उनकी उम्र 71 साल है, उन्हें डायबिटीज़ है, ब्लड प्रेशर है, वे कोरोना के शिकार हो सकते हैं, इसलिए वे सभी निर्देशों का पालन कर रहे हैं तथा सबसे पहले टीका लगवायेंगे.

हालाँकि ज़िज़ेक भी सरकारों के रवैये की आलोचना करते हैं तथा व्यवस्था में ठोस बदलाव के आग्रही हैं, पर आगम्बेन बड़े सवालों को सामने रखते हैं, जो कि एक दार्शनिक का कर्तव्य है. उन्होंने अपने एक ब्लॉग में 2013 में आयी पैट्रिक ज़िलबरमाँ के किताब का हवाला दिया है. उस किताब में रेखांकित किया गया है कि अभी तक हाशिए पर रही ‘स्वास्थ्य सुरक्षा’ कैसे राज्य और अंतरराष्ट्रीय राजनीतिक रणनीतियों का आवश्यक हिस्सा बनती जा रही है. उसमें तीन बिंदुओं को चिन्हित किया गया है, जिनके सहारे राज्य स्वास्थ्य सुरक्षा के नाम अपनी पकड़ को कसता जाता है-
1) ख़तरे की एक आशंका, एक काल्पनिक स्थिति को डेटा के सहारे पेश कर ऐसे व्यवहारों को बढ़ावा दिया जाता है, जिनसे एक गंभीर हालत में शासन में सहूलियत हो, 2) राजनीतिक तार्किकता एकदम बुरी स्थिति के तर्क को अपना लेती है, तथा 3) नागरिकों का ऐसे जुटान करना कि वे सरकारी संस्थाओं का अधिकाधिक अनुपालन करें, ऐसी अति अच्छी नागरिकता पैदा करना, जिसमें लादे गये दायित्व को परोपकार के रूप में प्रस्तुत किया जाता है और जहाँ नागरिक को पहले की तरह स्वास्थ्य का अधिकार नहीं होता, वह स्वस्थ होने के लिए न्यायिक तौर पर बाध्य होता है.
आगम्बेन ने पूछा है- पॉलिटिक्स की जगह इकोनॉमिक्स को लानेवाले इस सिस्टम को क्या मानवीय कहा जा सकता है और क्या चेहरे, दोस्ती, प्यार जैसे संबंधों को खोने की भरपाई एक एब्सट्रैक्ट और काल्पनिक स्वास्थ्य सुरक्षा से हो सकती है?
शिक्षा पर कोरोना सिचुएशन के असर, ख़ासकर ऑनलाइन एडुकेशन, पर आगम्बेन ने कहा है कि लगभग दस सदी से चली आ रही विश्वविद्यालय व्यवस्था हमेशा के लिए समाप्त हो जाएगी. उल्लेखनीय है कि इटली से ही विश्वविद्यालय व्यवस्था आयी है.
यह इटालवी दार्शनिक सामान्य जीवन जीते हुए मर जाने को ही ससम्मान से मरने की राह मानता है. ज़िज़ेक यह तो मानते हैं कि यह बहुत क्षोभ का विषय है कि हम इस महामारी के बारे में न के बराबर जानते हैं. वे यह भी कहते हैं कि हमें यह स्वीकार करना होगा कि पहले की जीवन पद्धति समाप्त हो चुकी है और हमें नए परिवेश की वास्तविकताओं को मानना होगा. आगम्बेन भी मानते हैं कि स्थिति बिगड़ चुकी है. लेकिन ज़िज़ेक व्यवस्था की आलोचना करते हुए भी अपने भय के कारण उस पर भरोसा करना चाहते हैं. वे कहते भी हैं कि कोरोना रोकने के उपाय सफल नहीं रहे हैं.
ज़िज़ेक के लिए कोरोना से पैदा हुई स्थितियाँ अधिनायकवाद के लिए स्वप्नदोष जैसा आनंदित अनुभव है. सरकारें अपनी मनमानी करने के लिए स्वतंत्र हैं. यह सब कहते हुए भी वे उपायों को अपनाना चाहते हैं क्योंकि उन्हें महामारी का भय है. इसके उलट आगम्बेन मनुष्य और समाज की स्वायत्ता के पक्षधर हैं, जबकि ज़िज़ेक राजकीय नियंत्रण को वस्तुस्थिति मानकर स्वीकार करते हैं.
अमेरिकी चिकित्सा विशेषज्ञ डॉ फ़ौची का बयान है कि टीका सिर्फ़ यह करेगा कि आपको संक्रमण से बचा लेगा, लेकिन आपके भीतर वायरस रहेगा. इसलिए टीका लगाने के बाद भी मास्क, सैनिटाइज़र और हाथ धोने जैसे उपाय करते रहने होंगे. ज़िज़ेक भी यह स्वीकार करते हैं. बहरहाल, मेरी एक चिंता यह भी है कि जब सभी मास्क/मुखौटा लगा रहे हैं, तो चेहरा पहचानने के लिए भारी ख़र्च से दुनियाभर में लगाए जा रहे सर्विलांस कैमरों का क्या होगा…
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