
सोवियत संघ में भारतीय राजदूत के तौर जेनरालिजिमो स्टालिन से उनकी दो बैठकों के बारे में उनके द्वारा प्रधानमंत्री कार्यालय को भेजे गये डिस्पैच और एक अन्य आधिकारिक रिपोर्ट से बड़ी दिलचस्प बातें पता चलती हैं. एक अन्य सहायक दस्तावेज़ पश्चिम जर्मनी के तत्कालीन राष्ट्रपति से बतौर उपराष्ट्रपति उनके मिलने के विवरण भी है. माओ से राधाकृष्णन के मिलने का कुँवर नटवर सिंह का वर्णन भी दिलचस्प है.
राजदूत के डिस्पैच से पता चलता है कि स्टालिन को समकालीन भारत के बारे में बुनियादी जानकारी भी नहीं थी. या, फिर वे जानबूझ कर अनजान बन रहे हों, या भारत को लेकर उनका रवैया लापरवाही का रहा होगा. उन्होंने राजदूत से भाषा, पाकिस्तान, कॉमनवेल्थ, सिलोन आदि के बारे में पूछा. दूसरी बैठक, जो राधाकृष्णन के भारत आने से कुछ पहले हुई, उसमें महिलाओं के मताधिकार, भूमि सुधार आदि मुद्दा रहे.
पंद्रह जनवरी, 1950 की बैठक (9pm) के बारे में प्रधानमंत्री को सूचित करते हुए राधाकृष्णन ने लिखा है कि जेनरालिजिमो स्टालिन लगातार सिगरेट फूँकते रहे और बीच-बीच में वे हँसे भी. दोनों रिपोर्टों में राधाकृष्णन भारतीय पक्ष को स्पष्टता से रखते दिखाई दे रहे हैं और सोवियत उपलब्धियों के प्रति सकारात्मक हैं.
फ़िल्म इंडिया के मार्च, 1942 के अंक में संपादक बाबूराव पटेल द्वारा लिया गया राधाकृष्णन का साक्षात्कार छपा था, जो ट्रेन में लिया गया था. राधाकृष्णन ‘भरत मिलाप’ फ़िल्म के प्रीमियर के बाद बंबई से लौट रहे थे. पटेल ने लिखा है कि फ़िल्म या इंडस्ट्री पर बिना कुछ बोले राधाकृष्णन कैसे जा सकते हैं, सो उन्होंने ट्रेन में पकड़ लिया. बड़ा दिलचस्प विवरण है.
इस फ़िल्म के प्रीमियर में राधाकृष्णन इसी शर्त पर शामिल हुए थे कि उन्हें कुछ बोलने के लिए नहीं कहा जायेगा. साक्षात्कार में उन्होंने कहा कि इंडस्ट्री तीस साल पुरानी हो चुकी है, और उसे पौराणिक कथाओं से निकलकर समकालीन विषयों और सामाजिक-आर्थिक समस्याओं पर फ़िल्में बनानी चाहिए. बनारस हिंदू विश्वविद्यालय पर एक फ़िल्म बनाने की फ़िल्म इंडिया की सलाह और उसके लिए धन जुटाने में मदद पर भी हामी भरी थी. उसी समय इसी विषय पर एक फ़िल्म बन चुकी थी जिसका ख़ास प्रदर्शन नहीं हो सका था.
औरतों के अधिकारों के बारे में अख़बारों की ‘दोषपूर्ण’ रिपोर्टिंग के कारण उनके और सरोजिनी नायडू के विचारों में भिन्नता पर भी उन्होंने सफाई दी थी और समानता का समर्थन किया था. वे फ़िल्मों की सकारात्मक भूमिका के आग्रही थे.
पचास के दशक में बंबई फ़िल्म इंडस्ट्री के कारोबार पर रिखाब दास जैन की किताब (1961) की प्रस्तावना भी डॉ राधाकृष्णन ने लिखी थी, तब वे देश के उपराष्ट्रपति थे.
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