जनसंख्या नियंत्रण की पुरानी बकवास

कुछ समय से जनसंख्या नियंत्रण का क़ानून बनाने का अभियान चल रहा है. इस संदर्भ में दो बातें समझी जानी चाहिए. बहुसंख्यकवाद को अल्पसंख्यक हो जाने की ग्रंथि उसकी जातीय (एथिनिक) श्रेष्ठता को स्थापित रखने की चिंता से प्रेरित तो है ही, इसके साथ धुर-दक्षिणपंथी सोच को बढ़ावा मिलने का मामला भी जुड़ा है. पश्चिम में बहुत अरसे से ‘द ग्रेट रिप्लेसमेंट’ का भय दिखाकर आप्रवासन और आबादी रोकने का अभियान चल रहा है. इस समझ का मानना है कि लोकतांत्रिक उदारवाद एक षड्यंत्र के माध्यम से श्वेत जनसंख्या को दूसरे समुदायों से विस्थापित करना चाहता है. यूरोप और अमेरिका में यह थियरी फ़ार-राइट/नियो नाज़ी गिरोहों द्वारा ख़ूब प्रचारित की जाती है. ‘अमेरिकन हिस्ट्री X’ में भी ऐसा संकेत है. हक्सली के ‘ब्रेव न्यू वर्ल्ड’ (1932) और ऑरवेल के ‘1984’ (1949) में भी बर्थ कंट्रोल का उल्लेख है.
And round her waist she wore a silver-mounted green morocco-surrogate cartridge belt, bulging with the regulation supply of contraceptives.
【Brave New World

बर्थ कंट्रोल की चिंता एक बहुत पुराना शग़ल है. प्लेटो और अरस्तू से सिलसिला चला आ रहा है. आधुनिक यूटोपिया (डिस्टोपिया पढ़ें) में तो यह एक सेंट्रल एलिमेंट है. इसका एक हिस्सा बेहतरीन प्रजाति पैदा करने पर टिका है और दूसरा हिस्सा अवांछित तबकों की तादाद घटाने के इरादे पर. 19वीं सदी के आख़िरी और 20वीं सदी के शुरुआती दहाइयों में ब्रिटेन में बर्थ कंट्रोल के बारे में जागरूकता बढ़ाने के लिए एक अभियान चला था, जिसे माल्थस के नाम पर माल्थसियन लीग कहा जाता था. हक्सली के उपन्यास में गर्भनिरोध का भाग इसी अभियान की व्यंग्यात्मक आलोचना है. उपन्यास में महिलाओं को जो गर्भनिरोधक मुहैया करानेवाला बेल्ट पहनाया जाता है, इसे इसी वजह से माल्थसियन बेल्ट कहा जाता है. इस उपन्यास में आदमी एक साइंटिफ़िक प्रोसेस से पैदा होता है और वह एक पूर्ण मनुष्य होता है. इस प्रोसेस से सरकार जनसंख्या वृद्धि को नियंत्रित करती है.

19वीं/20वीं सदी के उन दशकों में एक और विचार यूरोप और अमेरिका (कैलिफ़ोर्निया) में चल रहा था, जिसे यूजेनिक्स के नाम से जाना जाता है. इस अभियान का ज़ोर नस्ल के आधार पर एक समान मनुष्यों का समाज बनाना था. इसका सीधा संबंध व्हाइट सुपरमेसी से है. यूजेनिक्स का सबसे भयावह रूप हमें नाज़ी जर्मनी में मिलता है. वहाँ ज़बरदस्ती नसबंदी/बंध्याकरण की सरकारी नीति थी, जिसका ज़ोर नई प्योर रेस पैदा करना नहीं था, बल्कि जर्मानिया के अवांछित नस्लों को मिटाना था. इस नीति के तहत वहाँ अपराधियों, विकलांगों, बीमारों, मानसिक रोगियों आदि को ज़हर देकर मारा भी गया. हमारे यहाँ इमरजेंसी के दौरान जबरिया नसबंदी की गई थी. बाद में भी ऐसे मामले आए, जिनमें टारगेट पूरा करने के लिए मर्दों-औरतों की सहमति के बिना नसबंदी कर दी गई.

बहरहाल, गर्भनिरोध व बर्थ कंट्रोल के मसले पर वैज्ञानिक, स्त्रीवादी और दार्शनिक नज़रिए से बहुत कुछ लिखा गया है. जॉर्ज ऑरवेल इसे इविल मानते थे. कुछ समय पहले एक ख़बर पढ़ी थी कि महाराष्ट्र में कहीं औरत कामगारों को काम पर रखने के लिए गर्भाशय निकालने की शर्त रखी गई. एक लेख पिछले साल पढ़ा था कि मैटरनिटी लीव पॉलिसी भी वर्कफ़ोर्स में महिलाओं की भागीदारी कम होने की वजह है. बर्थ कंट्रोल और मैटरनिटी के मामलों में औरतों की इच्छा और उनके शरीर के आयामों की परवाह प्रमुखता से की जानी चाहिए.

देश में एक पहलू यह भी है कि दक्षिणी राज्यों ने अधिक विकास और समता हासिल करते हुए जनसंख्या की दर कम करने में सफल रहे हैं, जबकि दुनिया के सबसे अधिक ग़रीबों की आबादीवाले हिंदीपट्टी के राज्य इसमें पीछे रह गए हैं. वैसे मुझे तत्कालीन संघ प्रमुख सुदर्शन का 2005 का वह बयान भी याद आ रहा है, जिसमें उन्होंने हिंदुओं से तीन बच्चे पैदा करने का निवेदन किया था. याद तो यह भी आ रहा है कि प्रधानमंत्री मोदी बरसों से डेमोग्राफिक डिविडेंड का राग अलाप रहे थे.

डेमोग्राफ़िक डिविडेंड यानी आश्रित लोगों (14 साल से कम और 65 या उससे ज़्यादा उम्र के) से कामकाजी लोगों की संख्या (15-64 साल आयु वर्ग) का अधिक हो जाना. किसी भी देश के विकास के लिए ऐसी स्थिति बहुत ज़रूरी है. हमारे देश में 2018 से 2030 के दशक के मध्य तक ऐसी स्थिति रहेगी और 2050 के दशक में यह बदल जायेगी. इसका फ़ायदा उठाने के लिए स्वास्थ्य, शिक्षा, कौशल और भागीदारी की भावना का विकास ज़रूरी है. और, दुर्भाग्य से हमारे यहाँ इन मामलों में भयावह पिछड़ापन है और आगामी दशकों में इसमें सुधार की कोई उम्मीद नहीं है. सो, जनसंख्या रोकने के बहाने सांप्रदायिक क्रिप्टो नाज़ी राजनीति करने में भी मदद मिलेगी और असंतोष को भी सेफ़्टी वाल्व मिल जायेगा. बहस भी फिर उधर शिफ़्ट हो जायेगी और सतही तर्क दोनों ओर से दिए जायेंगे.

बहरहाल, ‘सैक्रेड गेम्स’ वाले गुरुजी कहते ही हैं- बलिदान देना होगा. वैसे इसी सीरिज़ के पहले सीज़न में इमरजेंसी की नसबंदी के बारे में गायतोंडे का डायलॉग भी याद आ रहा है- सरकार लोगों का #@&> काट के ले जा रेली थी.

नोट: इसके साथ देवेंदर सिंह का यह लेख भी पढ़ा जाना चाहिए- https://scroll.in/article/929450/opinion-why-india-must-shift-its-lens-from-population-control-to-population-development

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