मनोवैज्ञानिक विल्हेम राइख़ ने अपने पर्चे ‘लिसेन लिटिल मैन’ (1945) में लिखा था- ‘लघु मानव, तुम मुझसे पूछते हो कि तुम कब एक अच्छा, व्यवस्थित जीवन जी सकोगे, मेरा उत्तर तुम्हारे स्वभाव के प्रतिकूल है.’ इसी पुस्तिका में वे अन्यत्र लिखते हैं- तुम्हें एक भयावह अतीत विरासत में मिला है. तुम्हारी विरासत तुम्हारे हाथ में जलता हुआ हीरा है. मुझे यही तुम्हें बताना है.’ शूजीत सरकार की ‘गुलाबो सिताबो’ देखते हुए बार-बार मुझे राइख़ की बातें ध्यान में आ रही थीं.
इस फ़िल्म का कथानक खंडर बन चुकी पुरानी हवेली की मालकिन बूढ़ी बेगम के बूढ़े शौहर और उसके निम्न आयवर्गीय किराएदारों के बीच हवेली पर दख़ल की क़वायद के गिर्द घूमता है. शौहर किराएदारों की चीज़ें चुराता है, हवेली के बाहर कठपुतली का नाच दिखानेवाले से कमाई करता है तथा बेगम से भी पैसे लेता है. वह इस क़दर लालची है कि हवेली का मालिकाना हासिल करने के लिए बेगम के मरने का ख़्वाहिशमंद है. किराएदार मामूली किराए पर हवेली के कमरों में रहते हैं और न तो ज़्यादा किराया देना चाहते हैं और न ही कमरा छोड़ना चाहते हैं. उनका भी लालच इतना बढ़ जाता है कि वे हवेली को सरकार या बिल्डर को देकर मुआवज़े में फ़्लैट लेना चाहते हैं. हर किरदार पर बस अपने बचे-खुचे को बचाने में चतुराई करता रहता है.

कोरोना संकट में किसी तरह जान बचाने की कोशिश में लगे लोगों को देखकर इटली के विख्यात दार्शनिक जॉर्जियो आगमबेन ने कुछ समय पहले टिप्पणी की थी कि वह समाज भी भला क्या समाज है, जिसका एकमात्र मूल्य किसी तरह जीवित रहना है. ‘गुलाबो सिताबो’ सिर्फ़ जर्जर हवेली और उसके बाशिंदों की दास्तान नहीं है, वह एक जर्जर समाज और उसके लोगों की कहानी भी है. चाहे पुरातत्व का सरकारी विभाग हो, कचहरी का वक़ील हो, या फिर शहरों की बेशक़ीमती ज़मीन को किसी तरह हथियाकर फ़्लैट बनाने-बेचने का कारोबार कारनेवाले राजनीति से जुड़े बिल्डर हों, वे भी वैसी ही चालाकी और लालच दिखा रहे हैं, जैसे कि हवेली के लोग.
अपने मामूली स्वार्थों को साधने में लगे लोग नैतिकता या भावनात्मकता को भी ख़ास तरज़ीह नहीं देते. ऐसे परिवेश में सबकुछ बस अपने फ़ायदे का हिसाब है. फ़िल्म में किसी लड़की का अनेक लड़कों से संबंध बनाना या नौकरी के लिए हमबिस्तर होने का प्रस्ताव मानना या किसी लड़की का शादी के बाद कार से आकर और आटा चक्की चलानेवाले पुराने प्रेमी से ऑर्गेनिक आटा की माँगकर उसे अपमानित करना इसी संकट के उदाहरण हैं. इसे चाहें, तो हवेली में रहने की चाहत की वजह से बेगम का अपने प्रेमी से विवाह न कर घरजमाई बनने को तैयार कम उम्र के नाकारा से शादी करने से भी जोड़ सकते हैं. खुन्दक में ही सही, पर शौहर आख़िर में कह ही देता है कि मुझे हवेली का लालच था और बेगम को मेरी जवानी का. बेगम उस शौहर से 17 साल बड़ी है. और तो और, आख़िर में वह वापस अपने पुराने प्रेमी के साथ रहने चली जाती है और शौहर को दो कमरों का घर मुआवाज़े में या पुराने सामंती व्यवहार के अनुसार दे जाती है. बुढ़ापे में अब वह और मुश्किलें नहीं चाहती थी. यहाँ भी अपने बचाव का ही मूल्य हावी है, जबकि बुढ़ापे ने शरीर के साथ उसकी सोच-समझ की ताक़त को भी बहुत कमज़ोर कर दिया है.
फ़िल्म का शहर लखनऊ है, जो अतीत के सामंतवाद का प्रतीक शहर है. हवेली उस सामंती दौर के ढह जाने को भी इंगित करता है. ढहने के इस सिलसिले में कोई मूल्य भी साबुत नहीं बचता. असरदार संवादों और कैमरे के घुमाव ने दौर की विडंबनाओं को तो अभिव्यक्त किया ही है, कलाकारों ने भी अपने किरदारों को बख़ूबी निभाया है. अमिताभ बच्चन जैसा अनुभवी अभिनेता हो या सृष्टि श्रीवास्तव जैसी नयी पौध, और तमाम कलाकार, कोई किसी से उन्नीस नहीं है. इसका बहुत श्रेय निर्देशक शूजीत सरकार और लेखिका जूही चतुर्वेदी को जाता है. इस कड़ी में हमें कैमरे के पीछे अपनी भूमिका निभा रहे अविक मुखोपाध्याय के योगदान को भी रेखांकित करना चाहिए.
फ़िल्म हास्य-व्यंग्य है, पर हमारे समय के विद्रूप के दर्शाते हुए यह एक मार्मिक आख्यान बन जाती है, बहुत कुछ बनारस के बनारस न रहते जाने की कथा कहते प्रोफ़ेसर काशीनाथ सिंह के उपन्यास ‘काशी का अस्सी’ की तरह. अनुराग कश्यप की हालिया फ़िल्म ‘चोक्ड’ के साथ ‘गुलाबो सिताबो’ को रखकर देखें, तो यही लगता है कि हमारे दौर की विडंबनाओं को कथा में कहना अब लगातार मुश्किल होता जा रहा है.
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