इतिहास के साथ हमारा संबंध बहुत अजीब होता है. हम उसके अध्यायों को भूल जायें या उसे मनमाने ढंग से पढ़ें, पर उसका वजूद हमेशा बना रहता है. उसी की नींव पर हम वर्तमान और भविष्य की इमारतें खड़ी करते रहते हैं. लेकिन, अगर हम इतिहास के साथ ईमानदार हों और उससे सबक लेते हुए जीवन-यात्रा पर अग्रसर हों, तो शायद हमारे आज और कम की तस्वीर कुछ बेहतर हो सकती है. सिनेमा हमारे सांस्कृतिक जीवन का एक अहम हिस्सा है, परंतु उसके इतिहास को लेकर हम कुछ कम गंभीर हैं.

भारतीय सिनेमा के पितामह कहे जानेवाले दादासाहेब फाल्के को मराठी सिनेमा और संस्कृति में तो उन्हें याद भी किया जाता है, लेकिन देश के सबसे बड़े फिल्म उद्योग बॉलीवुड को शायद ही उनसे कुछ लेना-देना रह गया है. रोज सिनेमा पर चार पन्ने रंगनेवाले हमारे अखबार भी पुरखों को बिसार बैठे हैं. लेकिन यह भी सच है कि यह समस्या सिर्फ हमारे ही समय के साथ नहीं रही है. उन्हें तो जीते जी ही भूला दिया गया था. अपने अंतिम वर्षों में फाल्के साहब किसी तरह जीते रहे, और जब मरे, तो उन्हें कंधा देनेवाला कोई भी उस मायानगरी का बाशिंदा न था, जिसे तब हम बंबई के नाम से जानते थे और जिसे आज मुंबई कहा जाता है. उस मायानगरी को तो उनके बाल-बच्चों की भी सुध न रही. कहा जाता है कि यूनान का महान लेखक होमर रोटी के लिए तरसता रहा, लेकिन जब मरा तो उसके पार्थिव शरीर पर सात नगर-राज्यों ने दावा किया. हिंदुस्तान के सिनेमाई नगर-राज्यों ने फाल्के की तस्वीरें टांग ली हैं. पता नहीं, लाहौर, ढाका, सीलोन और रंगून में उसकी तस्वीरें भी हैं या नहीं, जो कभी सिनेमा के बड़े केंद्र हुआ करते थे. दस रुपये में पांच फिल्में सीडी में उपलब्ध होनेवाले इस युग में फाल्के की फिल्म ‘राजा हरिश्चंद्र’ संग्रहालय में है या फिर यूट्यूब के बेशुमार वीडियो में से एक है.
यहां एक घटना का उल्लेख करना प्रासंगिक होगा. मई, 1939 में मुंबई में एक बड़े आयोजन में भारतीय सिनेमा का सिल्वर जुबली मनाया जा रहा था. उस अवसर पर सभी वक्ताओं ने बड़े भाव-विभोर होकर दादासाहेब फाल्के के योगदान को सराहा, सिनेमा के लिए उनके समर्पण की बात की और उनकी उपलब्धियों को बार-बार गिनाया. जब सभी बोल चुके, तो सुप्रसिद्ध अभिनेता पृथ्वीराज कपूर खड़े हो गये. उन्होंने माइक पकड़ा और कहने लगे, ‘फिल्मी दुनिया के मेरे दोस्तों, जिस महान व्यक्ति की प्रशंसा अभी आपने इतनी देर तक सुनी, भारतीय सिनेमा का वह पिता वहां बैठा हुआ है. देखिए!’ यह कहते हुए उन्होंने मंच पर पीछे सिर नीचे किये बैठे दादासाहेब फाल्के की ओर इशारा किया. इस आयोजन में दादासाहेब ने बड़े दुख और उदासी से कहा था कि ‘मेरी बेटी सिनेमा ने मुझे भुला दिया है और चमक-दमक की चकाचौंध में ख़ुद को खो दिया है.’

इस आयोजन के साल भर बाद 23 जुलाई, 1940 को चेन्नई (तब मद्रास) में अपने अंतिम सार्वजनिक संबोधन में उन्होंने फिर कहा, ‘मुझे कई कारणों से लगता है कि उद्योग को जिस सही दिशा में यात्रा करनी थी, वैसा नहीं हो रहा है.’ वर्ष 1870 की 30 अप्रैल को जन्मे धुंडीराज गोविंद फाल्के उर्फ दादासाहेब फाल्के ने करीब दो दशकों के अपने करियर में 95 फिल्मों और 26 लघु फिल्मों का निर्माण और निर्देशन किया था. ‘राजा हरिश्चंद्र’ (1913) के साथ ‘मोहिनी भस्मासुर’ (1913), ‘सत्यवान सावित्री’ (1914), ‘लंका दहन’ (1917), ‘श्री कृष्ण जन्म’ (1918), ‘कालिया मर्दन’ (1919) उनकी उल्लेखनीय कृतियां हैं. एक त्रासदी यह भी है कि उनकी अधिकतर फिल्मों के रील हमेशा के लिए हमने खो दिया है. साहित्य और कला के विविध क्षेत्रों में शिक्षित-प्रशिक्षित दादासाहेब ने कथानक को तैयार करने तथा उसे प्रभावी मनोरंजन के साथ प्रस्तुत करने की विशिष्ट शैलियां विकसित कीं तथा उनके सानिध्य में पले-बढ़े कलाकारों और तकनीशियनों ने सिनेमाई यात्रा को आगे ले जाने में बड़ी भूमिका निभायी. भारतीय सिनेमा के पितामह को सच्ची श्राद्धांजलि वही होगी, जो उनके संदेशों के मर्म आत्मसात करने के लिए संकल्पबद्ध होगी. आइये, पढ़ते हैं उनके अंतिम सार्वजनिक संबोधन का यह हिस्सा, जो उन्होंने 23 जुलाई, 1940 को चेन्नई में दिया थाः
‘मुझे खुशी है कि हिन्दुस्तानी सिनेमा उद्योग अब सुस्थापित हो गया है जैसी कि उम्मीद थी. शुरू में, मैंने कला-मातृ के इस पवित्र मंदिर में एक उत्साही उपासक के रूप में इसके विकास की दिशा में अपने हिस्से की विनम्र सेवा अर्पित की थी. लेकिन अब मुझे कई कारणों से लगता है कि उद्योग को जिस सही दिशा में यात्रा करनी थी, वैसा नहीं हो रहा है.
मैंने बार-बार कहा है. वर्तमान परिस्थिति में, मेरा सुझाव है कि निर्माता लम्बी फिल्मों का मोह छोड़ कर छोटी फिल्मों, जो 7-8 हजार फीट की हों, पर ध्यान केन्द्रित करें, और उसके साथ एक शिक्षाप्रद फिल्म, एक रील का स्वस्थ हास्य, एक रील की कोई फिल्म जिसमें रेखाचित्र और जादुई दृश्य हों, एक रील का यात्रा-वृतांत आदि जोड़ दें. ऐसे कार्यक्रम मनोरंजक और शिक्षाप्रद होंगे. अगर हमारे निर्माता सही दिशा में कदम बढ़ाएंगे तभी इस उद्योग के स्वस्थ विकास और विस्तार की आशा की जा सकती है.
महंगे ‘सितारों’ को लेने और ढेर सारे गाने और लम्बे-लम्बे संवाद रखने की प्रवृति पर भी लगाम लगना चाहिए. नाटकीय दृष्टि से भी इन फिल्मों का स्तर अत्यंत निम्न है.
सिनेमा एक शैक्षणिक उपदेशक है और इस लिहाज से उचित विषय-वस्तु रखे जाने चाहिए. असभ्य और चिढ़ पैदा करने वाले हास्य-प्रसंगों, जिनका कहानी से कोई सम्बन्ध नहीं होता और हमारी हिन्दुस्तानी फिल्मों में जिनकी बहुतायत है, से हमारे निर्माताओं और निर्देशकों को बिलकुल परहेज करना चाहिए.’
Leave a Reply