मंटो के नाम ख़त: वो बात उनको बहुत नागवार गुजरी है

महबूब मंटो,
सलाम,

मेरी तरफ से सौवें जन्मदिन की मुबारकबाद क़बूल करो. हां, थोड़ी देर हो गयी. बात यह है मंटो, असल में मैं तुम्हें कोई मुबारकबाद भेजनेवाला नहीं था. शायद मिट्टी के नीचे दबे तुम अब भी ख़ुदा से बड़ा अफ़सानानिगार होने के अपने दावे या खुशफ़हमी से जिरह कर रहे होगे. ऐसे में तुम मेरा ख़त क्या पढ़ते! लेकिन बात कुछ ऐसी हुई कि बिना लिखे रहा न गया. बात पर आने से पहले यह साफ़ कर दूं कि मैं तुम्हें ‘तुम’ कहकर क्यों लिख रहा हूं. क्या पता, तुम्हारे नाम पर दुकान चलानेवाले इसी बात पर मेरे ख़िलाफ़ कोई फ़तवा जारी कर दें. इसका सीधा कारण यह है कि तुम ‘अकेला’ रहते और अपने लिए ‘सही जगह’ खोजते थक कर जिस दोपहर सो गये, तब तुम्हारी उम्र मुझसे बहुत अधिक न थी. मैं उसी मंटो को जानता हूं, इसी कारण तुम कहकर बुलाना तुम्हारे जैसे यारबाश के लिए सबसे सही तरीक़ा हो सकता है. बहरहाल, अब उस बात पर आता हूं, जिसकी वजह से यह ख़त लिखना ज़रूरी समझा.mde

मेरे मुल्क की सरकार ने तुम्हारे जन्मदिन पर कुछ ऐसा जलसा किया, जिससे तुम्हारी शान दोबाला हो गयी. क़सम से, अगर तुम होते तो झूम उठते. मेरे मुल्क से मेरा मतलब हिंदुस्तान से है, जिसके बारे में तुम कहते थे, ‘मेरा नाम सआदत हसन मंटो है और मैं एक ऐसी जगह पैदा हुआ था, जो अब हिंदुस्तान में है – मेरी मां वहां दफ़न है, मेरा बाप वहां दफ़न है, मेरा पहला बच्चा भी उसी ज़मीन में सो रहा है, जो अब मेरा वतन नहीं…’

देखो, तुम बात पर ध्यान दो, मुल्क और उसके बंटवारे पर बाद में बहस कर लेना. हुआ यूं कि तुम्हारे जन्मदिन पर हमारी संसद ने आम राय से स्कूल में पढ़ायी जानेवाली एक किताब पर रोक लगा दी. कुछ लोगों को उस किताब के एक कार्टून से परेशानी थी. अब देखो तफ़सील में जाने की कोई ज़रूरत नहीं. मामला कुछ कुछ वैसा ही था, जैसे तुम्हारी कहानियों के साथ हुआ था. जिस बात का सारे फ़साने में ज़िक्र न था, उसी का हवाला देकर उसे अपमानित करने वाला कह दिया गया और आनन-फानन में रोक लगा दी गयी.

अब देखो, अगर हमारे नेता तुम्हारी तस्वीर पर फूल-माला चढ़ाते तो क्या तुम्हें अच्छा लगता! आगे सुनो, जिन मंत्री महोदय ने इस किताब और कार्टून के लिए माफ़ी मांगी, उसे रोक देने का आदेश दिया और इसके लिए दोषी विद्वानों पर कारवाई की बात कही, वे तुम्हारी ओर से मुक़दमा लड़नेवाले वक़ील हरिलाल सिब्बल के बेटे कपिल सिब्बल हैं. वे भी वक़ील हैं, लेकिन साथ में मंत्री भी हैं. उनकी मजबूरी समझी जा सकती है. इनके बेटे सिर्फ वक़ील हैं और उन्होंने देश छोड़ देने पर मजबूर कर दिये गये मक़बूल फ़िदा हुसैन का मुक़दमा लड़ा था और जीता था. अब यह और बात है कि अदालत का आदेश भी हुसैन को देश वापस लाने में कारगर नहीं हुआ. तुम्हें हुसैन तो याद होंगे, जिनके साथ तुम कभी-कभी ईरानी चाय पीया करते थे! ख़ैर, तुम्हारी तरह हुसैन भी उस मिट्टी में दफ़न न हो सके, जिसमें उनके मां-बाप दफ़न हैं. तुम पकिस्तान में ‘अपना’ ठिकाना खोजते रहे, हुसैन परदेस में ठौर जोहते रहे.

यह संयोग यहीं ख़त्म नहीं होता मंटो. आगे सुनो. तुम्हें तो याद ही होगा कि किस तरह तुम्हारे ख़िलाफ़ ‘तरक़्क़ीपसंद’ कॉमरेडों ने खेल रचा था. सज्जाद ज़हीर, अली सरदार जाफ़री, अब्दुल अलीम आदि ने तुम्हारे और इस्मत आपा के ख़िलाफ़ ‘अश्लील’ होने का आरोप मढ़ा था और प्रोग्रेसिव राइटर्स की बैठक में इस बाबत प्रस्ताव पास कराने की कोशिश की थी. वे तो ऐसा नहीं कर पाये, लेकिन संसद में बैठे कॉमरेडों ने यह काम बख़ूबी अंजाम दिया और मरहूम शंकर के उस कार्टून के ख़िलाफ़ देश की सबसे बड़ी अदालत से फ़तवा पारित करवा लिया. मंटो, तब से अब तक हिंदुस्तान के अफ़साने में सिर्फ किरदार बदले हैं, कहानी का प्लॉट वही है.

अब इस्मत आपा की बात आयी तो यह बताने में अच्छा लग रहा है कि उनकी जिस कहानी ‘लिहाफ़’ के लिए समाज और अदालत ने कठघरे में खड़ा किया और बाद की कूढ़मग़ज़ी और नासमझी ने बस ‘लेस्बियन’ कहानी कह कर पढ़ा और हम यह लगभग भूल से गये कि आज से सत्तर साल पहले आपा घर की चारदीवारियों में होने वाले बच्चों के यौन शोषण की और ध्यान दिला रही थीं, इस सवाल को हिंदुस्तानी सिनेमा के बड़े कलाकार आमिर खान ने टेलीविज़न के ज़रिये घर-घर का सवाल बना दिया है. उम्मीद है कि लिहाफ़ का अधूरा काम अब काफ़ी हद तक पूरा होगा.

आख़िर में, एक मज़ेदार बात और. मुझे पता है कि तुम्हें अपने कश्मीरी होने पर बड़ा गुमान था, लेकिन तुम कभी वहां नहीं जा सके. इधर दिल्ली के एक लड़के अश्विन कुमार ने कश्मीर जाकर फ़िल्म बनायी है. जिस फ़िल्मी इतिहास के तुम अहम हिस्सा रहे, यह साल उस तारीख़ का सौवां साल भी है. साल का आग़ाज़ करते हुए सरकार ने उस लड़के को राष्ट्रीय पुरस्कार से नवाज़ा, लेकिन उसकी फ़िल्म को रोक दिया. तुम यह फ़िल्म देखते तो इसमें अपने अफ़सानों का रंग पाते. वैसे कश्मीर को आज मंटो की ज़रूरत है, जो वहां के दुःख-दर्द को दर्ज कर सके.

और यह कि, वैसे तो यह तुमने पकिस्तान के लिए लिखा था, लेकिन हिंदुस्तान में भी ‘हमारी हुकूमत मुल्लाओं को भी ख़ुश रखना चाहती है और शराबियों को भी.’ और यह भी कि तुम्हारे अफ़साने पढ़नेवाले ‘तंदुरुस्त और सेहतमंद’ लोग भी कम नहीं हैं.

तुम्हारा
प्रकाश

(मंटो के जन्मशती वर्ष 2012 में भारतीय संसद द्वारा एक कार्टून की वजह से एक स्कूली किताब पर पाबंदी लगाए जाने और कश्मीर पर बनी एक फिल्म को रोके जाने के हवाले से यह चिट्ठी तब लिखी गयी थी. )

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