बदल जायेंगे अमेरिका-चीन समीकरण

इस दौर-ए-आख़िरी की जहालत तो देखिए
जिसकी ज़बाँ दराज़ हुकूमत उसी की है
– बशीर महताब

भोजपुरी में एक कहावत है- कतनो करब जोगा टोना, बबुआ सुतिहें ओही कोना. मतलब यह कि आदत से लाचार व्यक्ति किसी भी स्थिति में सुधरता नहीं है. लेकिन अगर वह व्यक्ति दुनिया के सबसे शक्तिशाली देश और सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था का राष्ट्रपति हो, तो यह स्थिति बेहद ख़तरनाक हो जाती है. कोरोना वायरस के विश्वव्यापी संक्रमण, ढहती अर्थव्यवस्थाओं और बढ़ती अनिश्चितताओं के बीच जो कुछ भी दुर्भाग्यपूर्ण एवं भयावह हो सकता है, अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप उसके सूत्रधार बनकर उभरे हैं. अभी अमेरिका कोविड-19 से सर्वाधिक प्रभावित है. पहले तो लंबे समय तक ट्रंप एवं उनका प्रशासन तमाम चेतावनियों के बावजूद हाथ पर हाथ धरे बैठे रहे और कोरोना के ख़तरे को नज़रअंदाज़ करते रहे और जब वे हरकत में आए, तो उनकी नीतियों और रणनीतियों का खोखलापन सबके सामने आ गया. पहले उन्होंने चीन के ऊपर सारा दोष मढ़कर अपनी ग़लतियों को छुपाने की कोशिश की और अब उनके निशाने पर विश्व स्वास्थ्य संगठन है.

अमेरिका में कोरोना संक्रमण से हुई मौतों की संख्या 35 हज़ार पहुँचती दिख रही है. अर्थव्यवस्था की स्थिति यह है कि क़रीब सवा दो करोड़ लोग बेरोज़गार हो चुके हैं. छोटे कारोबारों के विभाग के अनुसार, ऐसे व्यवसायों को बचाने के लिए जारी हुआ 349 अरब डॉलर का कोष समाप्त हो चुका है और जिन कारोबारियों को क़र्ज़ नहीं मिल सका है, वे और धन की मंज़ूरी के लिए कांग्रेस की ओर देख रहे हैं. ट्रंप प्रशासन ने इस मद में अतिरिक्त 250 अरब डॉलर की माँग की है, जिस पर कांग्रेस विचार कर रही है. इसके अलावा अस्पतालों और राज्य व स्थानीय प्रशासनों के लिए भी धन जुटाना है. अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष का आकलन है कि वैश्विक अर्थव्यवस्था में तीन प्रतिशत की गिरावट आयेगी, जो 1930 के दशक की वैश्विक महामंदी के बाद सबसे अधिक संकुचन है. अमेरिका में यह कमी 5.9 प्रतिशत हो सकती है. ऊपर से हो यह रहा है कि हज़ारों अमेरिकी करोड़पतियों को राहत के नाम पर करोड़ों डॉलर बाँटने की योजना है, जिस पर 4.5 ट्रिलियन डॉलर का ख़र्च आयेगा.

इस साल नवंबर में अमेरिकी राष्ट्रपति का चुनाव होना है और इसके साथ हाउस ऑफ़ रिप्रेज़ेंटेटिव, सीनेट, राज्यों की कांग्रेस और गवर्नरों के भी कई चुनाव हैं. कोरोना संकट से पहले अमेरिका अर्थव्यवस्था ठीक होने के चलते यह माना जा रहा था कि डोनाल्ड ट्रंप का दुबारा राष्ट्रपति बनना लगभग तय है. पर अब स्थिति बदल चुकी है. कोरोना वायरस की रोकथाम करने में ट्रंप प्रशासन की लापरवाही, बदइंतज़ामी और कमज़ोर नीतियों की बड़ी आलोचना हो रही है. ऐसे में ट्रंप आदतन चुनौती का सारा ठीकरा चीन और विश्व स्वास्थ्य संगठन के माथे फोड़कर ख़ुद को बचाने की जुगत में लगे हैं. यह साफ़ देखा जा सकता है कि जिन पैंतरों से उन्होंने पिछला चुनाव जीता था और अब तक अमेरिका का शासन चलाया है, उन्हें ही वे फिर से आज़मा रहे हैं. मीडिया, डेमोक्रेटिक पार्टी, यूरोप के देशों, चीन और स्वास्थ्य संगठन के साथ उन्होंने पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा को भी नहीं छोड़ा है.

चीन के ख़िलाफ़ अमेरिकी, यूरोपीय और भारतीय मीडिया के बड़े हिस्से में चल रहे झूठ आधारित दुष्प्रचार के बावजूद यह साबित हो चुका है कि चीन ने ख़तरे का अहसास होते ही दुनिया को आगाह कर दिया था. यह तथ्य लांसेट जर्नल और न्यू इंग्लैंड मेडिकल जर्नल में 24 जनवरी को छपे चीनी वैज्ञानिकों और डॉक्टरों के लेखों से साबित होती है. लांसेट जर्नल के संपादक रिचर्ड होर्टन कह चुके हैं कि अमेरिका समेत पश्चिमी देशों की सरकारों के वैज्ञानिक और मेडिकल सलाहकार वायरस की क्षमता से परिचित हो चुके थे और या तो उन्होंने अपनी सरकारों को ठीक से समझाया नहीं या फिर ग़लत सलाह दी. स्वास्थ्य संगठन के बयानों और रिपोर्ट इसके सबूत हैं.

ख़ुद राष्ट्रपति ट्रंप को उनके वाणिज्य सलाहकार 29 जनवरी को ही चेता चुके थे कि अगर अभी उपाय नहीं किये गये तो यह महामारी तबाही मचा सकती है. अमेरिका, यूरोप और भारत समेत कई अन्य देश तो तब भी सावधान नहीं हुए, जब इटली में कोरोना का क़हर था और उन देशों में भी संक्रमित लोग मिलने लगे थे. कुछ दिन पहले न्यूयॉर्क टाइम्स ने एक रिपोर्ट ने बताया है कि चीन द्वारा वायरस के फैलाव की जानकारी सार्वजनिक किये जाने के बाद भी वुहान समेत चीन के अन्य शहरों से 4.30 लाख लोग अमेरिका पहुँचे थे. इनमें से 40 हज़ार तो यात्राओं पर पाबंदी के बाद आये.

बहरहाल, चीन और वायरस पर बहुत कुछ लिखा गया है और बहुत कुछ लिखा जा रहा है, यहाँ यह समझना बहुत ज़रूरी है कि चीन पर आरोप मढ़ने से अमेरिका या किसी देश का भला नहीं होनेवाला है. इस या उस रोग से बचाने के लिए समुचित स्वास्थ्य सुविधाओं और आमदनी को सुनिश्चित करने की ज़रूरत है. चीन को छोड़िए, आप पुर्तगाल के अनुभव को देख सकते हैं. यह देश आर्थिकी में ब्रिटेन, इटली और स्पेन से पीछे है, पर इसने कोरोना को तत्काल क़ाबू में कर लिया. पुर्तगाल की स्वास्थ्य व्यवस्था और नैतिक नेतृत्व लोकतांत्रिक देशों के लिए एक महत्वपूर्ण आदर्श बन सकता है.

इसी तरह विश्व स्वास्थ्य संगठन के मसले पर भी अलग से विचार करना बहुत ज़रूरी है. राष्ट्रपति ट्रंप ने आरोप लगाया है कि यह संगठन चीन के प्रभाव में है और उसने कोरोना मामले में गड़बड़ी की है. उन्होंने इस संगठन को अमेरिका की ओर से दी जानेवाली वित्तीय अंशदान को भी रोकने की घोषणा की है. होना तो यह चाहिए था कि इस प्रकरण के बहाने संगठन की कार्यशैली और इसे मिलनेवाले धन को लेकर एक विस्तृत चर्चा होती. कहीं-कहीं लिखा भी गया है. स्वास्थ्य संगठन के सदस्य देश अपनी आबादी और आर्थिक स्थिति के अनुसार धन देते हैं. इसके अलावा कोष का बड़ा स्रोत विभिन्न अंतरराष्ट्रीय संगठनों और धनकुबेरों द्वारा संचालित स्वयंसेवी संस्थाओं से आता है. इसके कोष का बहुत बड़ा हिस्सा सरकारों से नहीं आता है, बल्कि दूसरे स्रोतों से आता है और यह दान सशर्त यानी कहाँ ख़र्च होगा, इसके साथ आता है.

अमरीकी सरकार की हिस्सेदारी से लगभग तीन गुना अधिक धन अमेरिका से ही स्वैच्छिक श्रेणी में आता है. साल 2018 और 2019 में सरकार की देनदारी 237 मिलियन डॉलर थी, जबकि अमेरिका से मिलने वाली स्वैच्छिक राशि 656 मिलियन डॉलर थी. इन दोनों श्रेणियों के अधिक धन अकेले बिल गेट्स द्वारा संचालित स्वयंसेवी संस्थाओं- बिल एंड मेलिंडा गेट्स फ़ाउंडेशन (531 मिलियन डॉलर) और गावी एलायंस (371 मिलियन डॉलर) ने दिया था. इनके अलावा बड़े दाता- दोनों श्रेणियों में- ब्रिटेन, जर्मनी, जापान और कनाडा है. स्वैच्छिक श्रेणी में देनेवाले अहम नामों में संयुक्त राष्ट्र के कुछ संगठन, रोटरी इंटरनेशनल, विश्व बैंक, यूरोपीय कमीशन, अमेरिका और ब्रिटेन के धनकुबेरों की एक स्वयंसेवी संस्था नेशनल फ़िलांथ्रोपिक ट्रस्ट है.

चीन का हिस्सा 2018 और 2019 में 76 मिलियन डॉलर था, जिसमें बहुत थोड़ा भाग स्वैच्छिक श्रेणी में था. ऊपर जिन संस्थानों और देशों के नाम आए हैं, सभी चीन से बहुत अधिक धन विश्व स्वास्थ्य संगठन को देते हैं. अब इन आँकड़ों को देखते हुए स्पष्ट है कि इस संगठन को चीन द्वारा प्रभावित करने का ट्रंप का आरोप पूरी तरह अनर्गल है. असलियत तो यह है कि विश्व स्वास्थ्य संगठन पर अमेरिका, बिल गेट्स जैसे धनकुबरों और बड़ी दवा कंपनियों का असर चलता है और वे अपने हिसाब से इसका एजेंडा निर्धारित करते हैं. इसके बावजूद ऐसी विपत्ति में ट्रंप का यह फ़ैसला दुर्भाग्यपूर्ण तो है ही, भ्रामक भी है और इसके पीछे पूरा इरादा अमेरिकी जनता और दुनिया का ध्यान भटकाना है.

अच्छी बात यह है कि ख़ुद ट्रंप प्रशासन ने इस घोषणा को अमली जामा पहनाने और अपने स्तर पर जाँच के लिए दो से तीन महीने का समय तय किया है. पहले से निर्धारित या भुगतान हुए धन को नहीं देना आसान नहीं होगा और ट्रंप को कांग्रेस की मंज़ूरी लेनी पड़ सकती है. इससे भी पता चलता है कि वे बस इसे एक मुद्दा बनाकर भुनाना चाहते हैं. यह भी उल्लेखनीय है कि संयुक्त राष्ट्र की कुछ संस्थाओं, पेरिस जलवायु सम्मेलन, ईरान परमाणु समझौता तथा अमेरिका द्वारा अन्य देशों में चलायी जा रही स्वास्थ्य से जुड़ी परियोजनाओं से राष्ट्रपति ट्रंप पहले भी बहानेबाज़ी कर अपना हाथ खींच चुके हैं.

चीन पर अनाप-शनाप आरोप केवल अमेरिकी राष्ट्रपति ही नहीं लगा रहे हैं. कोरोना संक्रमण से अपने निवासियों की रक्षा करने में असफल रहे उनके कुछ नाटो सहयोगी भी ऐसी आड़ लेना चाह रहे हैं. ब्रिटेन के विदेश सचिव डॉमिनिक राब ने कहा है कि चीन के साथ अब पहले जैसा संबंध नहीं रहेगा और उससे कड़े सवाल पूछे जायेंगे. फ़्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैकराँ ने कहा है कि यह मानना बचकाना होगा कि महामारी रोकने में चीन का रवैया अच्छा रहा है. उन्होंने कहा है कि ऐसी चीज़ें हुई हैं, जिनकी जानकारी हमें नहीं है. ऐसे आरोप ही असल में बचकाने हैं क्योंकि यूरोप और अमेरिका को ख़तरे की जानकारी बहुत पहले दी जा चुकी थी. सच यह है कि इटली, हंगरी आदि अनेक देशों को मुश्किल के समय चीन ने मदद की, पर यूरोपीय संघ अनजान बन कर बैठा रहा था. इटली में संक्रमण और मौतों के दिल दहलाने देनेवाले दृश्य पूरी दुनिया ने देखा है. आख़िरकार, यूरोपीय संघ की अध्यक्ष को इटली से यह कहते हुए माफ़ी माँगनी पड़ी है कि परेशानी में यूरोप ने इटली को अकेला छोड़ दिया है.

उल्लेखनीय है कि कोरोना से हुई लगभग 90 फ़ीसदी मौतें नाटो देशों में हुई हैं. इसका आर्थिक खामियाज़ा भी सबसे ज़्यादा उन्हें ही भुगतना होगा. जैसे ही स्थिति सामान्य होगी, तो इन सरकारों को अपने लोगों के कड़े सवालों का जवाब देना होगा. ऐसे में वे पहले से ही चीन को कटघरे में खड़ाकर ख़ुद को बचाना चाह रहे हैं. ट्रंप फिर से चीनी प्रयोगशाला से वायरस निकलने की जांच की बात कर रहे हैं, जबकि बड़े वैज्ञानिकों और वैज्ञानिक संस्थाएँ ऐसी किसी भी संभावना को सिरे से ख़ारिज़ कर चुकी हैं.

अमेरिका यूरोप और चीन वैश्विक अर्थव्यवस्था की सबसे अहम घटक हैं. कोरोना संकट से पहले से ही चीन और अमेरिका में व्यापार के असंतुलन तथा भू-राजनीतिक मुद्दों को लेकर तनातनी चली आ रही थी, किंतु कोरोना संक्रमण और वैश्विक लॉकडाउन ने दोनों देशों के समीकरण को बदल कर रख दिया है. चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने सही ही कहा है कि इस महामारी के राजनीतिकरण की कोशिश अन्तर्राष्ट्रीय सहयोग में बाधक होगी. यह पूरी दुनिया को समझना होगा कि संकट के बाद भी लंबे समय तक वायरस से बचाव तथा अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने के लिए लगातार प्रयासों की आवश्यकता होगी और यह बिना परस्पर वैश्विक सहयोग व विश्वास के संभव नहीं हो सकेगा. लेकिन ऐसा होने के आसार नहीं हैं.

चीन के अख़बार ग्लोबल टाइम्स के प्रधान संपादक हु शीजिन ने लिखा है कि अब दोनों देशों के पुराने संबंधों की ओर देखना फ़िज़ूल है और स्थिति के हिसाब से आगे देखा जाना चाहिए. उन्होंने कहा है कि चीन के पास प्रतिरोध का अपनी दर्शन है और वह दूसरा सोवियत संघ नहीं बनेगा तथा भविष्य की चुनौतियों का सामना नयी इच्छाशक्ति और बुद्धि से करेगा. उन्होंने यहाँ तक कह दिया है कि हमारा तरीक़ा बिलकुल नया होगा और हमें दुनिया को अचरज में डाल देना है.

आज ज़रूरत है कि सभी देश, ख़ासकर पश्चिम के धनी देश, आत्ममंथन करें कि इतने विकास के बाद भी वे अपने लोगों को स्वास्थ्य और रोज़गार मुहैया क्यों नहीं करा पाए हैं. कोरोना से जब छोटे-छोटे देश ख़ुद को बचाने में सफल दिख रहे हैं, तो ताक़तवर देश क्यों लाचार नज़र आ रहे हैं? इस संकट में भी अमेरिका और पश्चिमी देश प्रतिबंधों और हमलों को बरक़रार रखे हुए हैं, जो मानवता के विरुद्ध सबसे बड़ा अपराध है. अपने देश में और अपनी सीमाओं से बाहर पश्चिमी देशों को राजनीतिक और मानवीय मूल्यों पर खरा उतरने की चुनौती है.

चीनी अर्थव्यवस्था भी 1976 के बाद सबसे निचले स्तर पर है और एशिया की अन्य अर्थव्यवस्थाएँ भी संकुचित हो रही हैं. पूरी दुनिया में सरकारों को कोरोना से निपटने के लिए मिले विशेष अधिकारों के आगे जारी रहने को लेकर भी चिंता है. लोकतंत्र, अंतरराष्ट्रीय सहयोग और वैश्विक व्यापार की स्थापित परंपराओं पर भी संकट है. ऐसे में अमेरिका और कुछ यूरोपीय देशों का रवैया बेहद चिंताजनक है.

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