अधकचरी समझ पर चमगादड़ जैसा लटका मीडिया

एक व्यक्ति का भोजन दूसरे व्यक्ति के लिए ज़हर है. इस यूरोपीय कहावत का सीधा मतलब तो यह है कि जो एक को पसंद है, वह दूसरे को नापसंद हो सकता है. पर, जब हम इसे सभ्यता, संस्कृति, अस्मिता व नस्ल के हवाले से लागू करते हैं, यह मतलब भेदभाव, नफ़रत और हिंसा का आधार बन जाता है और इसका इस्तेमाल राजनीतिक, आर्थिक तथा सामाजिक मतलब साधने के हथियार के तौर पर होने लगता है. इसके उदाहरणों से इतिहास पटा हुआ है. ताज़ा मामला कोरोना वायरस और चीन से जुड़ा है.

भारत से लेकर पश्चिमी दुनिया की मीडिया, बौद्धिक विमर्शों और राजनीतिक बयानों के एक हिस्से में लगातार कहा जा रहा है कि कोविड-19 नामक वायरस वुहान के माँस बाज़ार में किसी पशु-पक्षी से मनुष्यों में फैला है और उस पशु या पक्षी में वायरस सीधे या परोक्ष रूप से चमगादड़ से आया है. यह समझदारी अब पूरी तरह से चीन के ख़िलाफ़ एक संगठित अभियान बन चुका है, जिसके शीर्ष पर अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप हैं और उन्होंने इस वायरस का नाम ही ‘चाइनीज़ वायरस’ रख दिया है. उनका कहना था कि यह नाम नस्लवादी नहीं है क्योंकि वायरस चीन से आया है. उनके विदेश सचिव और पूर्व सीआइए प्रमुख माइक पॉम्पेओ ने कुछ क़दम आगे बढ़कर वायरस को ‘वुहान कोरोना वायरस’ कह दिया. अब जब उन्हें चीन की मदद की दरकार हुई है और चीन ने वायरस के उद्गम को लेकर कुछ असुविधाजनक सवाल पूछ दिया है, तो अमेरिकी राष्ट्रपति समेत पश्चिमी मीडिया ने घुलाटी मारना कुछ कम किया है. लेकिन भारत में, ख़ासकर हिंदी मीडिया की मुख्यधारा का बड़ा हिस्सा अपने अधकचरे ज्ञान और मूढ़ता से पहले से ही परेशान-बदहाल हिंदी पट्टी को संक्रमित करता जा रहा है. एक तरफ़ कोरोना वायरस के इस संस्करण को वुहान माँस बाज़ार से आया कहा जा रहा है, तो दूसरी तरफ़ यह भी आधारहीन दुष्प्रचार चलाया जा रहा है कि यह वायरस चीन के प्रयोगशाला में बनाया गया है, जो लापरवाही से बाहर आ गया या उसे जान-बूझकर बाहर निकाला गया.

sars-cov-2_without_backgroundयदि यह वायरस प्रयोगशाला का है, तो फिर इसका संबंध वुहान के माँस बाज़ार (वेट मार्केट या सी फ़ूड मार्केट) या चीनियों के खान-पान के संस्कारों से नहीं होना चाहिए. इसी तरह से यदि चमगादड़ से पशु-पक्षी में और फिर मनुष्य में आया है, तो फिर प्रयोगशाला में बनाने की बात ख़ारिज़ हो जाती है. जो लोग इसे माँस बाज़ार से निकला हुआ बता रहे हैं, वे मुख्य रूप से दो स्रोतों को उद्धृत कर रहे हैं- विश्व स्वास्थ्य संगठन और न्यू इंग्लैंड मेडिकल जर्नल. थोड़ा पड़ताल करने पर ही दिख जाता है कि अनुमान के आधार पर कही गयी बातों को पश्चिमी और भारतीय मीडिया का एक हिस्सा नमक-मिर्च डालकर अपने उपभोक्ताओं को परोस रहा है. ऐसे दुष्प्रचार और भ्रम में 2003 में चिन्हित सार्स कोरोना वायरस को भी जोड़ लिया जा रहा है.

स्वास्थ्य संगठन के वेबसाइट पर साफ़-साफ़ शब्दों में लिखा हुआ है कि सार्स वायरस के बारे में ‘माना जाता है’ (thought to be) कि यह एक पशु वायरस है, जो एक ‘अभी तक अनिश्चित पशु स्रोत, शायद चमगादड़’ (as-yet-uncertain animal reservoir, perhaps bats) से आया है. समझा जाए, आज से 17 साल पहले चिन्हित वायरस के बारे में आज भी विश्व स्वास्थ्य संगठन स्पष्ट और सुनिश्चित रूप से नहीं कह पा रहा है कि सार्स चमगादड़ से आया है. लेकिन इसे प्रोपेगैंडा के लिए ग़लत तरह से देश और दुनिया के सामने रखा जा रहा है. कोविड-19 के किसी पशु स्रोत से फैलने की संभावना के बारे में संगठन का कहना है कि ‘अभी-अभी खोजे गए इस कोरोना वायरस’ के ‘संभावित पशु स्रोतों का अभी तक पता नहीं चला है.’ जो बात इस वैश्विक संस्था की जानकारी में नहीं है और अभी तमाम शोध चल ही रहे हैं, परंतु मीडिया ने चमगादड़-ऊदबिलाव की पूरी कहानी बना दी है.

कुछ रिपोर्टों में न्यू इंग्लैंड मेडिकल जर्नल का हवाला दिया गया है. इस जर्नल में 24 जनवरी को छपे संपादकीय में स्टैनली पर्लमैन ने लिखा है कि इस संक्रमण के बारे में बहुत कुछ जानना अभी बाक़ी है और इसमें वायरस के पैदा होने के ‘ज़ूनोटिक’ स्रोत की पहचान करना एक मुख्य प्रश्न है. वैज्ञानिकों ने कई दशकों में जो जानकारी जुटायी है, उसके मुताबिक आम तौर पर सभी कोरोना वायरसों के स्रोत ‘ज़ूनोटिक’ हैं यानी मनुष्यों को छोड़कर अन्य जीवों से ये वायरस आये हैं. इनमें से चार कोरोना वायरस मनुष्य में बस चुके हैं, जिनसे सामान्य खाँसी-सर्दी होती है. मशहूर साइंस जर्नल ‘नेचर’ में 17 मार्च को छपे लेख में कोविड-19 के संक्रमण के संदर्भ में सार्स कोरोना वायरस पर चर्चा करते हुए लिखा गया है कि सार्स कोरोना वायरस के स्रोत के बारे में निश्चित रूप से नहीं कहा जा सकता है, पर ‘ऐसा लगता है’ कि इसका ‘संभावित’ मूल जीव स्रोत चमगादड़ था. पर्लमैन ने भी लिखा है कि दूसरे कोरोना वायरसों से मिलते-जुलते होने के कारण ‘ऐसा लगता है’ कि चमगादड़ कोविड-19 का मूल स्रोत है. उन्होंने चीन में पहले फैले सार्स और मध्य-पूर्व में फैले मर्स के स्रोत के बारे में चमगादड़ का उल्लेख किया है, लेकिन यह कहते हुए वे ‘संभवत: (probably)’ का इस्तेमाल करते हैं. पर्लमैन यह भी लिखते हैं कि यह वायरस चमगादड़ से सीधे या किसी माध्यम से आया है, इसकी भी पड़ताल होनी है.

इस कोरोना वायरस को लेकर जो चमगादड़ और चीन के माँस बाज़ारों का उल्लेख हो रहा है, वह पश्चिमी या भारतीय वैज्ञानिकों या पत्रकारों-संपादकों की खोज नहीं है. नेचर, न्यू इंग्लैंड या लांसेट में भी जो चर्चा चला रही है, वह भी कोई उनका अपना शोध नहीं है. सबसे पहले चीनी वैज्ञानिकों ने वुहान में महामारी के फैलने के शुरुआती दिनों में ही शोध व अनुसंधान के लिए ज़रूरी तमाम सूचनाओं को एकत्र कर और उनका प्रारंभिक विश्लेषण कर पश्चिमी जर्नलों को भेज दिया था, जो न्यू इंग्लैंड और लांसेट जर्नलों में जनवरी में छपा. चीन के नॉवल कोरोना वायरस जाँच एवं शोध टीम के दर्ज़नों डॉक्टरों और जीव विज्ञानियों ने इस अध्ययन को किया है, जो लगातार जारी है और इसमें दुनियाभर के वैज्ञानिक जूटे हुए हैं. लांसेट मेडिकल जर्नल के संपादक रिचर्ड होर्टन ने ‘द गार्डियन’ में लिखा है कि जब उनके चारों ओर महामारी भयानक गति से बढ़ रही थी, तब उस दबाव के बावजूद चीनी वैज्ञानिकों ने अपने शोध को एक ‘विदेशी भाषा’ में लिखने की कठिनाई उठायी और उसे हज़ारों मील दूर जर्नल में छापने के लिए भेजा. उनका यह तेज़ी और मेहनत से किया गया काम दुनिया को तुरंता चेतावनी थी. होर्टन ने लिखा है कि दुनिया को उनका आभारी होना चाहिए.

न्यू इंग्लैंड जर्नल में 26 फ़रवरी को छपे लेख में तीन जीव विज्ञानियों ने बहुत अहम बात लिखी है कि हमने एक वैश्विक मानव-वर्चस्व वाली पारिस्थितिकी बना दिया है, जहाँ जीवों से आनेवाले वायरसों के उत्पन्न होने और उनके स्रोत को बदलने के तमाम मौक़े हैं. इनमें कोरोना जैसे वायरस तो लाखों सालों से अपने स्रोत बदलते रहे हैं. मानव जाति के जीनोम को एक फ़ीसदी विकसित होने में अस्सी लाख साल लगे, लेकिन कई जीव वायरस कुछ दिनों में ही एक फ़ीसदी से ज़्यादा विकसित हो सकते हैं. इसलिए यह समझना मुश्किल नहीं है कि हम क्यों ऐसे वायरसों को लगातार उत्पन्न होते देख रहे हैं. इसका एक पहलू जलवायु परिवर्तन भी है, जिसे लेकर हमारी सरकारों और मीडिया में बहुत अधिक गंभीरता नहीं दिख रही है, जबकि यह संकट लगातार गंभीर होता जा रहा है. मई, 2017 में जैसमिन फ़ॉक्स-स्केली ने बीबीसी पर एक बड़े लेख में विभिन्न शोधों के आधार पर बताया था कि धरती का तापमान बढ़ने के कारण पिघल रहे ग्लेशियरों में लाखो-लाख साल से दबे बैक्टीरिया और वायरस अब सक्रिय हो रहे हैं.

प्राचीन रोमन इतिहासकार टैसिटस ने लिखा है कि सत्य को जाँच और देरी से निर्धारित किया जाता है तथा झूठ को जल्दबाज़ी और अनिश्चितता से. विज्ञान की अपनी एक विशिष्ट भाषा होती है, जिसे समझने का दम प्रोपेगैंडा और पूर्वाग्रह से ग्रस्त क्लिकबैट पत्रकारिता में नहीं है. विज्ञान विधिवत जाँच-शोध के बाद ही अंतिम निर्णय पर पहुँचता है. इतना ही नहीं, वह उस निष्कर्ष को भी माँजता रहता है. पत्रकारिता को इतिहास का पहला ड्राफ़्ट ही बने रहना चाहिए, उसे इतिहास बनाने या निर्णय देने जैसी प्रवृत्तियों से बचना चाहिए. सवाल और बहस तो यह हो- आख़िर समय रहते चीनी वैज्ञानिकों की चेतावनी के बाद भी भारत समेत दुनिया के बड़े देश क्यों नहीं चेते, सरकारों के बड़े-बड़े वैज्ञानिक और मेडिकल सलाहकार क्या कर रहे थे तथा क्या इस ग़लती के लिए नेताओं और सलाहकारों को कटघरे में भी खड़ा किया जाएगा?

(मीडियाविजिल पर 31 मार्च, 2020 को प्रकाशित)

Leave a Reply

Fill in your details below or click an icon to log in:

WordPress.com Logo

You are commenting using your WordPress.com account. Log Out /  Change )

Twitter picture

You are commenting using your Twitter account. Log Out /  Change )

Facebook photo

You are commenting using your Facebook account. Log Out /  Change )

Connecting to %s

Create a website or blog at WordPress.com

Up ↑

%d bloggers like this: