‘जामताड़ा’ एक दिलचस्प सीरीज़ है। जानी-पहचानी कहानियों से बनी इस सीरीज़ की सबसे बड़ी ख़ासियत उसका ऑब्वियस होना है। यह ऑब्वियस यह रेखांकित करता है कि जिस पृष्ठभूमि में ‘जामताड़ा’ घटित होता है, वह एक डिस्फंक्शनल समाज है और उसका रिडेम्पशन एक असंभावना है। एपिसोडों या दृश्यों से गुज़रते हुए आप यह नहीं सोचते कि आगे क्या होगा, आप यह सोचते हैं कि ये किरदार हैं कौन। मज़ेदार यह भी कि आपकी सिम्पैथी उन लौंडों के साथ भी हो सकती है, जिन्होंने आपको या आपके किसी जाननेवाले को चूना लगाने की कोशिश की होगी या चूना लगा दिया होगा। बहरहाल, ऐसा कहानियों में भी होता है और जीवन में भी।
‘जामताड़ा’ क्या सिर्फ़ एक क़स्बे की कहानी है, जो डिजिटल इंडिया और कैशलेस इकोनॉमी को पलीता लगाता है तथा जिस कहानी के भीतर व बाहर डेढ़ जीबी रोज़ाना की पॉलिटिकल इकोनॉमी में किरदार व दर्शक भागीदार हैं, या फिर इन सबके साथ वह एक ‘नेशनल एलेगरी’ भी है, जिसे फ़्रेडरिक जेमेसन ने पोस्ट-कोलोनियल तीसरी दुनिया के लिटरेचर का ज़रूरी गुण बताया था!
यह बहुत मायने नहीं रखता है कि कहानी क्या है, खेल तो कहानी कहने में है और कहने में हुईं सिनेमाई ग़लतियों की क्या परवाह, जब कहानी ‘नेशनल एलेगरी’ है! उस कमी का लोचा तो स्किल इंडिया में भी है। वैसे भी वह एक माइनर पहलू है। जहाँ सोशल एरीना ही डिस्फंक्शनल है, और यह एक नेशनल एलेगरी है, तो स्क्रीनप्ले की कमियों को नज़रअंदाज़ कर देना चाहिए। वह तो फ़िल्मकार व उनकी टीम को एडिटिंग टेबल पर ही समझ में आ गया होगा।
यदि हम इस कमी पर रुकेंगे, तो यह एक पोस्ट-मॉडर्न ठहराव होगा या फिर सिनेमाई समीक्षा के रिचुअलिस्टिक फ़ॉर्मेट में रुक जाना। जामताड़ा जैसे क़स्बे का राष्ट्रीय प्रसार देखिए और सोचिए कि उन लौंडों ने इंग्लिश स्पीकिंग कोर्स कर आईएसडी कॉल करना शुरू कर दिया तो क्या गुल खिलेगा और क्या ग़ुल मचेगा! डेमोग्राफ़िक डिविडेंड में डेटा बने ये लौंडे ट्रेन पकड़कर पलायन की जुगत में हैं या मजबूरी में? आपको क्या लगता है, झोला उठाकर वे दोनों गंजेड़ी लौंडे किधर का रुख किये होंगे? सबका नंबर आयेगा…(‘जामताड़ा’ Netflix पर स्ट्रीम हो रही है।)
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