■ तरस आता है उस देश पर
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तरस आता है आस्थाओं से पूर्ण और धर्म से रिक्त देश पर.
तरस आता है उस देश पर जो दबंग को नायक का दर्जा देता है,
और जो चमकीले विजेता को उदात्त होने का मान देता है.
तरस आता है उस देश पर जो सपने में किसी उन्माद से दूर भागता है,
पर जागने पर उसके आगे समर्पण कर देता है.
तरस आता है उस देश पर
जो बस शवयात्राओं में ही अपनी आवाज़ बुलंद करता है,
अपने खंडरों में ही डींगें हाँकता है,
और वह प्रतिकार तभी करता है
जब उसकी गर्दन तलवार और पत्थर के बीच आ चुकी होती है.
तरस आता है उस देश पर जिसका नेता लोमड़ी है,
जिसका दार्शनिक छलिया है,
और जिसकी कला चेपी एवं नक़ल की कला है.
तरस आता है उस देश पर
जो अपने नये शासक का स्वागत तुरही बजाकर करता है,
और उसे तिरस्कार के साथ विदाई देता है,
अगले शासक के लिए वह फिर तुरही बजाता है.
– खलील जिब्रान (द गार्डेन ऑफ़ द प्रोफेट)
■ तरस आता है उस देश पर
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तरस आता है उस देश पर जहाँ लोग भेड़ें हैं
और जिन्हें उनका गड़ेरिया भटकाता है.
तरस आता है उस देश पर जिसके नेता झूठे हैं
जिसके मनीषियों को चुप करा दिया गया है
और जिसके धर्मांध वायुतरंगों पर प्रेतों की तरह मंडराते हैं.
तरस आता है उस देश पर
जो विजेताओं की प्रशंसा करने
और दबंग को नायक मानने
और ताक़त व यातना के ज़रिये
दुनिया पर राज करने की कोशिश के अलावा
कभी भी अपनी आवाज़ नहीं उठाता.
तरस आता है उस देश पर जिसे
अपनी भाषा के अलावा कोई और भाषा नहीं आती
और जिसे अपनी संस्कृति को छोड़कर
किसी और संस्कृति का पता नहीं.
तरस आता है उस देश पर
पैसा जिसकी साँस है
और जो खाये-अघाये की नींद सोता है.
तरस आता है उस देश पर, आह, उन लोगों पर
जो अपने अधिकारों को ख़त्म होने देते हैं
और अपनी आज़ादी को बह जाने देते हैं.
{मेरे देश, तुम्हारे आँसू
प्यारी धरती आज़ादी की!}
– लॉरेंस फ़र्लिंगहेटी (आफ़्टर खलील जिब्रान, 2007)
दोनों कविताएँ प्रकाश के रे द्वारा अनुदित
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