जिस तरह से तमाम ट्रोलों और भाजपा नेताओं ने ‘छपाक’ फ़िल्म को लेकर बेहद निंदनीय हरकतें की हैं, उससे साफ़ है कि इस गिरोह के गिरने की कोई हद नहीं है. होना तो यह चाहिए कि इस फ़िल्म के हवाले से ही सही, तेज़ाब से पीड़ित लड़कियों की व्यथा, इस अपराध को रोकने के उपायों, दोषियों को दंडित करने आदि पर चर्चा हो. इस संबंध में कुछ बिंदु पेश हैं-
1- दो साल की देरी के बाद सरकार बहादुर ने पिछले साल अक्टूबर में 2017 के अपराध के आँकड़ों को सार्वजनिक किया था. इसके मुताबिक 2017 में महिलाओं के विरुद्ध अपराध के लगभग 3.60 लाख मामले सामने आए थे. देशभर में तेज़ाब फेंकने की 250 से अधिक घटनाएं उस साल हुई थीं.
2- वर्ष 2013 तक तेज़ाब फेंकने को अलग अपराध की श्रेणी में नहीं रखा जाता था. लक्ष्मी के केस के बाद ही सुप्रीम कोर्ट ने इसे अलग अपराध बनाया. इसी केस में मुआवज़े का प्रावधान बना और तेज़ाब की बिक्री पर पाबंदी लगी.
3- तेज़ाब बेचने पर पाबंदी तो लग गयी, लेकिन केंद्र और राज्य सरकारों ने इस आदेश को लागू करने में लापरवाही दिखायी है. इस आदेश के पालन की समीक्षा की कोई व्यवस्था नहीं है. इस कारण तेज़ाब फेंकने के अपराध बढ़ते ही जा रहे हैं.
4- तेज़ाब फेंकेने की कोशिश के मामले भी बढ़े हैं. 2017 में एक क़ानून भी पारित हो चुका है. इस साल एक मामले में सुप्रीम कोर्ट कह चुका है कि यह अपराध इस हद तक अमानवीय है कि इसमें सज़ा देते समय दया दिखाने का कोई मतलब नहीं है.
5- मुआवज़ा और पुनर्वास बेहद लचर हैं. इनमें सुधार होना चाहिए. अपराधियों में परिचितों, रिश्तेदारों, यहाँ तक कि पिता व भाई भी हो सकते हैं.
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