प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के व्यक्तित्व को लेकर विचारों का जितना ध्रुवीकरण है, उतना सार्वजनिक जीवन में सक्रिय किसी और व्यक्ति को लेकर शायद ही कभी रहा हो. उनकी छवि को लेकर परस्पर विरोधी विचारों के बीच खाई बहुत गहरी है. ऐसे में निदा फाजली की ये पंक्तियां सूत्र-वाक्य बन जाती हैं- ‘हर आदमी में होते हैं दस-बीस आदमी / जिसको भी देखना हो कई बार देखना.’ मोदी ने लेख, जीवनियां और कुछ जरूरी मसलों पर किताबें लिखी हैं, जिनके जरिये हम उनके राजनीतिक व प्रशासनिक जीवन को बहुत हद तक समझ सकते हैं, लेकिन व्यक्ति के रूप में उनकी सोच व संवेदनशीलता को समझने की एक कुंजी उनकी कहानियां और कविताएं भी हैं. साहित्यकार के रूप में उनके आकलन की एक कोशिश के साथ उनकी तीन कविताएं प्रस्तुत की जा रही हैं…
संस्कृत काव्यालोचना के प्राचीन विद्वान मम्मट ने कवि की रचना के बारे में कहा है कि वह नियतिकृत, नियमरहित और आनंददायिनी है. आधुनिक साहित्यालोचना के मर्मज्ञ आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने कविता को इन शब्दों में परिभषित किया है- ‘जिस प्रकार आत्मा की मुक्तावस्था ज्ञानदशा कहलाती है, उसी प्रकार हृदय की मुक्तावस्था रस दशा कहलाती है. हृदय की इसी मुक्ति की साधना के लिए मनुष्य की वाणी जो शब्द विधान करती आयी है, उसे कविता कहते हैं.’ प्रख्यात कवि व समीक्षक अशोक वाजपेयी की दृष्टि में कविता अनंत पर खुली खिड़की है. अंगरेजी के महान कवि इलियट के लिए तो कविता व्यक्तित्व की अभिव्यक्ति नहीं, बल्कि व्यक्तित्व से पलायन है. प्रश्न यह है कि उस कवि की कविताओं को किन प्रतिमानों व मानदंडों पर परखा जाये जो अपनी रचनाओं में किसी असाधारण साहित्यिक विशिष्टताओं के होने का दावा नहीं करता और उन्हें ‘किसी झरने के ताजा पानी की तरह विचारों का प्रवाह मानता है. नरेंद्र मोदी के लिए उनकी कविताएं उनके द्वारा देखी, अनुभव की गयीं और कभी-कभार कल्पित की गयीं स्थितियों, घटनाओं, व्यक्तियों व वस्तुओं की भावाभिव्यक्ति हैं. वे कहते हैं कि अगर इस झरने के गिरते जल की कोमल ध्वनि पाठकों के मन में गुंजती है और हृदय को छूती है तो वे रचनाकार के रूप में स्वयं को धन्य मानेंगे.
कोई और रचनाकार होता तो शायद साहित्य के आलोचक व समीक्षक इतने से संतुष्ट हो सकते थे, लेकिन कवि और कहानीकार होने के साथ वे राजनेता भी हैं और उनकी छवि शानदार लोकप्रियता और विद्वेष तक पहुंचते विरोध के दो विपरीत छोरों के बीच पसरी है तथा वे दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के प्रधानमंत्री के रूप में करोड़ों लोगों के जीवन व भविष्य के निर्धारक हैं. ऐसे में उनकी रचनाओं को सिर्फ पढ़ कर किनारे नहीं रखा जा सकता है.
नरेंद्र मोदी ने कई किताबों लिखी हैं, जिनमें दलित-वंचित समुदायों को समाज की मुख्यधारा में लाने के उनके विचारों का संग्रह ‘सामाजिक समरसता’, युवावस्था में उनके मनोभावों को जगत जननी मां को लिखे पत्रों के माध्य्म से व्यक्त करती ‘साक्षीभाव’, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के पूर्व प्रमुख श्रीगुरु गोलवलकर के जीवन और कार्य पर आधारित ‘श्री गुरु जी: एक स्वयंसेवक’, संघ के प्रमुख विचारकों व नेताओं के बारे में ‘ज्योतिपुंज’, आपातकाल के दौर को विश्लेषित करती ‘आपातकाल में गुजरात’, जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों के उपाय सुझाती ‘कन्वेनिएंट एक्शन’ आदि प्रमुख हैं. ये किताबें उनके सार्वजनिक जीवन के विविध पक्षों को बेहतर ढंग से हमारे सामने प्रस्तुत करती हैं, लेकिन उनकी कविताएं और कहानियां उनके मनोविज्ञान, कल्पनाशीलता, सौंदर्यबोध और अंतर्द्वंद्वों से हमें परिचित कराती हैं.
अलग-अलग समय पर लिखी गयीं और विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में छपी उनकी गुजराती कविताओं का संकलन 2007 में ‘आंंख आ धन्य छे’ (धन्य हैं ये आखें) प्रकाशित हुआ था जिसका अंगरेजी में अनुदित संस्करण ‘ए जर्नी’ शीर्षक से 2014 में आया. इन कविताओं में उनके राष्ट्रवादी विचारधारा और हिंदू पहचान का बखान करती रचनाएं तो हैं ही, प्रेम, प्रकृति और अस्तित्व को लेकर गहरे लगाव को भी अभिव्यक्त करती हैं. संकलन के आमुख में नरेंद्र मोदी ने इन कविताओं को अपना ‘अंतरस्थ विचार’ कहा है.
नरेंद्र मोदी की कविताओं और कहानियों के साहित्यिक महत्व पर विचार और फैसले का अधिकार तो साहित्य के पंडितों तथा प्रखर पाठकों का है, लेकिन पाठात्मक दृष्टिकोण से ये रचनाएं न सिर्फ रचनाकार और उसके परिवेश का प्रवेश द्वार हैं, बल्कि भारत जैसे उत्तर-औपनिवेशिक समाज के आंतरिक विचार-तरंगों का स्वर भी हैं. उत्तर-औपनिवेशिक समाजों के साहित्य के बारे में एलेक बोहमर ने लिखा है कि इसकी खोज पाश्चात्य प्रभुत्व व प्रभाव के उलट स्थानीय सांस्कृतिक तत्वों को अपनाते हुए सबसे पहले इतिहास और स्व पर काबिज होने की दिशा में एक आध्यात्मिक वास्तविकता की ओर तीर्थयात्रा होती है. फ्रेडरिक जेमेसन का बहुचर्चित मत है कि तीसरी दुनिया के ‘सभी पाठ अनिवार्यत: राष्ट्रीय रूपक होते हैं’. मोदी की रचनाओं में ये विशेषताएं स्पष्ट दृष्टिगोचर होती हैं. यह महज संयोग नहीं है कि उनके काव्य-संकलन के अंग्रेजी संस्करण का शीर्षक ‘ए जर्नी’ है तो उसके मराठी संस्करण का नाम ‘भावयात्रा’ है. उनके कहानी संस्करण की संज्ञा ‘प्रेमतीर्थ’ है. अगर हम पाठ को देखें, तो यह बात और स्पष्ट होती है.
संकलन की पहली कविता विगत व स्मृति के भावसत्य से यात्रा-रेखा बनाती है- अविस्मरणीय संगी, जिनके साथ पीड़ा सही हमने / साथ भोगा दुख / बनते हैं यात्रा सब अंत में. दूसरी कविता, जिससे संकलन के गुजराती संस्करण का शीर्षक लिया गया है, प्रकृति के विराट स्वरूप को समर्पित है. मोदी ने एक साक्षात्कार में कहा था कि प्रकृति उनकी कविताओं की मुख्य विषय-वस्तु व प्रेरणा है और प्रशासक के रूप में भी पर्यावरण की रक्षा व बेहतरी उनकी प्राथमिकता रही है. प्रेम को समर्पित एक कविता पीछे छूट गयी किसी की उपस्थिति की संदली सुगंध को याद कर भाव-विह्वल होती है, तो अन्य कविता में विरह-वेदना से बेचैन यह अकेलापन विराट मानवता के महासमुद्र में मिलकर थिर हो जाता है.
इन रचनाओं में साधारण शब्द रूपकों और बिंबों में गूंथ बड़े अर्थ प्रस्तुत कर देते हैं. एक कविता में नरेंद्र मोदी उम्मीद की किरणों के कुदाल से अंधेरे को खोदने की जुगत लगाते हैं, तो किसी अन्य रचना में प्यार की कमी से पनपे हिंसा और दुख के अवसाद में डूबने लगते हैं. लेकिन कवि भरोसे और हौसले का दामन नहीं छोड़ता. राम, कृष्ण, नर्मदा, धरती जैसी दैवी आस्थाओं की पतवार थामे अपनी नियति के निर्माण की प्रक्रिया में संलग्न हो जाता है तथा सपाट व ठेठ अंदाज में कह देता है- रास्ता नहीं उनके लिए जिनके निर्बल हैं पांव या दुर्बल हैं हृदय / यह धरा रही है माता पृथ्वी के वीर एवं भली संतानों की.
आज
था, है, बीता, वर्तमान
यहां, वहां, अभी, आगत
यह सब रिक्तता है,
एक विशाल स्तंभ है,
खंडहरों के बीच!
राहों में हम भटकते हैं भ्रमित,
किसी अनुप्राणित शव की तरह नहीं,
बस अपनी परछार्इं मात्र.
बीता हुआ मानो
आत्मा हर ली हो प्रेतों की छायाओं ने.
और जबकि आत्मा अमर्त्य है,
हम इसी शरीर में तलाशते हैं अमरता.
तरसते हैं हम कल अमर होने के लिए,
पकड़े हुए बीते हुए कल के मोह
और आज के विश्वासघातों को.
क्या कोई अर्थ है इस तरह के जीवन में?
प्रेम के लिए एक कविता
जिस पल मुझे तुम्हारा अहसास हुआ
मेरे मन के प्रशांत हिमालयी वन में
एक दावानल उठा, प्रचंड आवेग से.
जब मैंने तुम्हें देखा
पूनम का चांद उगा मेरे मन की आंखों में
खिले हुए चंदन के पेड़ की महक
और जब हम आखिरकार मिले,
मेरे होने का हर रोम-कूप भर गया
तुलनातीत सुगंध से.
हमारे वियोग ने पिघला दिये मेरे आनंद के शिखर.
सुगंध परिवर्तित हो गया झुलसा देनेवाली गर्मी में
जो जलाता है मेरा शरीर,
राख में बदल देता है मेरे सपनों को.
दूर तट पर पूनम का चांद
निष्ठुरता से देखता है मेरी दूर्दशा.
बिना तुम्हारे कोमल सान्निध्य के
मेरे जीवन के जलयान पर
कोई कप्तान नहीं, कोई पतवार नहीं.
धन्य हैं ये आंखें
इस सुनहरी धरती को निहारना,
इन आंखों को मिला वरदान है!
इस घास पर पसरती है धूप.
हरी किरणें छूती हैं मेरी आंखों को,
पर ठहरती नहीं.
दीप्तिमान आकाश दमकता है आशीर्वाद में,
इस सुनहरी धरती को निहारते हुए!
देखता हूं इस इंद्रधनुष को, फूलों का एक गुलदस्ता
रंगों की चमकीली अंगूठी,
ऊंचे आकाश में!
पूर्व जन्मों के पुण्य कर्मों के फल
अभिभूत करते हैं मेरी इंद्रियों को,
जब मैं ऊपर देखता हूं.
समुद्र भी आकाश में हो उठता है पुनर्जीवित.
इस बीच, कौन-सी कथाएं छुपाते हैं ये मेघ?
आह्लाद से भर जाती है मेरे हृदय की रिक्तता
जब मैं निहारता हूं इस सुनहरी धरती को.
अतुल्य और सत्य है मेरे लोगों के लिए मेरा नेह
तब भी,
दूसरों की आंखों से ही जान सकता हूं मैं स्वयं को.
थाह नहीं लगा सकती कोई भी आंख
सचमुच उस रहस्य का, अस्तित्व का.
तब भी, मेरी आंखें सचमुच धन्य हैं
जो निहारती हैं इस सुनहरी धरती को.
{ए जर्नी: पोएम्स बाइ नरेंद्र मोदी/प्रकाशक: रूपा. गुजराती से अंगरेजी अनुवाद: रवि मंथा
अंगरेजी से हिंदी अनुवाद: प्रकाश के रे}
‘रविवार’ में 25 मई, 2014 को प्रकाशित
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