शिकस्ता मक़बरों पे टूटती रातों को इक लड़की लिये हाथों में बरबत जो घूमे कुछ गुनगुनाती है
कहा करते हैं चरवाहे के जब रुकते हैं गीत उसके तो इक ताज़ा लहद से चीख़ की आवाज़ आती है……
(अताउल्लाह ख़ान की द्वारा गायी गयी ग़ज़ल ‘न हरम में, न कलीसा में’ के एक संस्करण से)
उसके प्रेम-चुम्बन थे मुंदी आँखोंवाले जो आँखें खुलने पर दिखे कि खेले गए थे वे ‘स्पॉटलाइटों’ तले जो बुझाई जा चुकी हैं और कमरे की दोनों दीवारें (वह एक ‘सेट’ था) हटाई जा रही हैं…
(अर्नेस्तो कार्देनाल की कविता ‘मेरिलिन मुनरो के लिये प्रार्थना’ से/ सोमदत्त द्वारा अनुदित)
आठ साल पहले जिन दिनों हिन्दुस्तान के अख़बारों और टेलीविज़न चैनलों पर ‘द डर्टी पिक्चर’ के ट्रेलर, गाने, तस्वीरें और संबंधित ख़बरें छायीं हुईं थीं, ठीक उन्हीं दिनों मिस्र की राजधानी काहिरा की एक लड़की अपनी नग्न तस्वीरें ब्लॉग पर डालकर ख़बरों में थी. हिंदुस्तान में फ़िल्म के गाने ‘ऊ ला ला ला’ और विद्या बालन के ‘ऊम्फ’ को लेकर ‘उत्तेजक वॉव’ का माहौल था जो फ़िल्म के रिलीज़ होते होते अतिरेकी-उत्सवी स्खलन में बदल गया. लेकिन काहिरा में स्थिति बिल्कुल उलट थी. समाज सन्न था. बीस साल की आलिया महदी की तस्वीरों में सरकार और समाज के स्त्रियों के प्रति दोहरे नज़रिए के विरुद्ध अपने शरीर पर अपने अधिकार की खुली घोषणा थी. इस घोषणा ने धार्मिक कट्टरपंथियों और सैनिक शासन को तो परेशान किया ही, उदारवादी और स्वतंत्रतावादी भी सकते में थे. किसी को भी इस लड़की का यह रवैया रास नहीं आ रहा था. कट्टरपंथी खेमे और उदारवादी खेमे के दो विपरीत ध्रुवों से आई एक-सी प्रतिक्रियाएं पुरुष की दृष्टि से रचे गए स्त्री-विमर्श की सीमाओं को एक बार फिर रेखांकित कर गयीं.
हमारे यहाँ ‘सिल्क’ थी जिसके कपड़े बार-बार उतारे गए और बार-बार चखा गया उसका ‘ऊम्फ’. पुरुष के लिये यह बहुत मायने की बात नहीं थी कि वह जीवित है या मर गयी (या मारी गयी). सिल्क वह अप्सरा थी/है जो उस पौराणिक कथा में भी नाची थी. कथा कुछ यूँ है. ऋषि-मुनियों के लिये इंद्र के दरबार में विशेष नृत्य का आयोजन था. नृत्य धीरे-धीरे ऋषि-मुनियों के दिलो-दिमाग़ पर हावी हो रहा था. किसी कोने से आवाज़ आई- आभूषण उतारो. अप्सरा ने नाचते-नाचते आभूषण उतार दिए. कुछ देर बाद दूसरे कोने से आवाज़ आई- वस्त्र उतारो. अप्सरा ने आदेश/आग्रह का पालन किया. रात के तीसरे पहर किसी तंग गली के डांस बार और सात-सितारा होटल के डिस्कोथेक का माहौल देवलोक के उस कक्ष में तारी था. उत्तेजक उन्माद में ऋषि-मुनि दर्शन और आध्यात्म के अध्याय भूल चुके थे या यों कहें कि इनमें हवस का भी एक परिशिष्ट जोड़ रहे थे. अब आवाजें जल्दी-जल्दी आने लगी थी- और उतारो, और उतारो, थोड़ा और….. अब वह बिल्कुल नग्न थी. उत्तेजना चरम पर थी. सहोदराना ब्रह्मानंद का वातावरण था. तभी आवाज़ आई- यह चमड़े का आवरण भी उतारो. अप्सरा ने ऐसा ही किया (उसके पास और कोई विकल्प भी न था).
स्त्रियों के पास विकल्प जैसा कुछ नहीं होता जबकि पूरा विश्व है पुरुष के जीतने के लिये, पूरी वसुंधरा है उसे भोगने के लिये. बस उसे कुछ बेड़ियाँ छोड़नी है और थोड़ी वीरता दिखानी है. हालाँकि आजतक नहीं जीता जा सका विश्व और न ही भोगी गयी वसुंधरा. हर बार जीती गयी स्त्री. हर बार उसे ही भोगा गया.
कितनी ही बार सिनेमा में और असल ज़िंदगी में दोहराई गयी देवलोक के दरबार की वह रात. लेकिन इस बार तो गज़ब हो गया. हद की हर हद लांघी गयी. मन नहीं भरा पुरुष का सिल्क के अनगिनत संस्करणों से, उसकी फ़िल्मों से, उसके विडियो से, उसकी तस्वीरों वाले स्क्रीन-सेवरों से. वह उसकी लाश खोद लाया बरसों पुरानी क़ब्र से और फिर उसे कहा गया वही सब करने को जिसे करते हुए वह मरी (या मारी गयी). तब उसे देवदासी बनाया गया, अप्सरा बनाया गया, उसे बनाया गया वेश्या. उसे फिर यही सब बनाया गया लेकिन पुरुष की चालाकी ने इस बार उसे बना दिया ग्लेडिएटर- पुरुष की मर्दानगी को ठेंगा दिखाती सिल्क.
लेकिन यह स्त्री-मुक्ति का मामला नहीं था. पुरुष की यौन-संतुष्टि का एक और तरीक़ा था, फेटिश था. कुछ उसी तरह जैसे WWF में लड़ती हैं स्त्रियाँ. कई बार पुरुष को अपने अन्दर की स्त्रैण-प्रवृति को छुपाने के लिये कुछ ऐसे पैतरे देने होते हैं जो ऊपर से बड़े निर्दोष या विप्लवी लगें. सिल्क के संवाद वहीं हैं जो पुरुष न जाने कब-से बोलता आया है. अब सिल्क बोलती है. पुरुष को मज़ा आता है. उस मज़े को वह प्रगतिशीलता या स्त्री-विमर्श का जामा पहनता है ताकि उसके कुंठा की नंगई छुप सके. पुरुष रोल-प्ले खेलता है. अपनी होमोफोबिया को तुष्ट करता है. लेकिन यह तो पुरुष न जाने कब-से करता आया है. उसके द्वारा रचे गए सभ्यता के ढोंग उसके लैंगिक-पुंस्त्व की चिंता के विस्तार ही तो थे और हैं. ‘द डर्टी पिक्चर’ इस विस्तार को और वीभत्स बनती है.
अब तक पुरुष पुरुष होने की ग्रंथि से पीड़ित था, अब वह नेक्रोफिलिया का रोगी है. चिंता तब बढ़ जाती है जब यह रोग सामूहिक हो जाता है. ‘फ़ैशन’ में उसे थोड़ा संकोच था. तब उसने मरती हुई स्त्री की आत्मा को एक जीवित स्त्री के भीतर प्रविष्ट करा दिया था लेकिन यहाँ वह बिल्कुल बेशर्म है. वह लाश को क़ब्र से खोदता है, उसे जीवित करता है और रेट्रो मोड में उसे उसका जीवन फिर से जीने को कहता है और फिर उसे मार देता है. अपनी कुंठा के सामने बलि देकर उसे संतोष नहीं मिलता. उसकी लाश के इर्द-गिर्द वह सामूहिक और सार्वजनिक रूप से भौंड़ा नृत्य करता है (वैसे पुरुष सिर्फ़ भौंड़ा ही नाच सकता है).
फिर कोई पढ़ता है किसी कोने में बरसों पहले मुनरो के लिये की गयी प्रार्थना- फ़िल्म अंतिम चुम्बन के बिना ख़त्म हो गयी उन्हें मिली वह मरी, फ़ोन हाथ में लिये, ….. परमेश्वर, चाहे जो कोई हो जिससे वह करना चाहती थी बात लेकिन नहीं की (और शायद वह कोई न था या कोई ऐसा जिसका नाम न था लॉस एंजलस डायरेक्टरी में) परमेश्वर, तुम उठा लो वह टेलिफ़ोन…
Leave a Reply