जिस दिन डॉक्टर मेजर मुक्ता शर्मा से पहली बार मिला, वह गरमियों की शाम थी.
जिस दिन डॉक्टर मेजर मुक्ता शर्मा से नहीं मिला, वह भी गरमियों की शाम थी. अगला दिन.
मेरे पास करने को कुछ नहीं था, सोचने को भी कुछ नहीं. यह बिलकुल सही नहीं कि दिल दरया होता है. है तो छोटी-सी कुईं. कितनी देर लगेगी सूख जाने में, जब इस तरह के महादेवीनुमा खयाल आएँ तो कमरे से बाहर हो लेता हूँ.
(‘बनी-ठनी’ की शुरुआती पंक्तियाँ)
समकालीन हिंदी साहित्य और रंगमंच में दिलचस्पी लेनेवाला शायद ही कोई व्यक्ति ऐसा होगा, जो स्वदेश दीपक के नाम से परिचित नहीं होगा. जाति-व्यवस्था पर जोरदार प्रहार करता उनका नाटक कोर्ट मार्शल तो विभिन्न भाषाओं में हजारों बार मंचित हो चुका है. उनकी अपनी मानसिक स्थिति की त्रासदी पर आधारित संस्मरण मैंने मांडू नहीं देखा एक नायाब कृति है. तमाशा, बाल भगवान, किसी एक पेड़ का नाम लो, सबसे उदास कविता आदि उनकी चर्चित रचनाएँ हैं. जगरनॉट बुक्स ने उनकी कहानियों का एक संकलन बगूगोशे प्रकाशित किया है. यह शीर्षक इस संग्रह की एक कहानी से लिया गया है. इसके अलावा सात अन्य कहानियाँ हैं.
किताब के आवरण पर दो तत्व उधर संकेत करते हैं, जो स्वदेश दीपक की रचनाओं और उनके जीवन के हालिया सालों को जोड़ देते हैं. लेखक और शीर्षक के ऊपर लिखा हुआ है- ‘अंतिम अप्रकाशित कहानियाँ’. पता नहीं, यह संपादकीय चूक है या फिर दीपक की त्रासदी का रेखांकन. हमें नहीं मालूम कि स्वदेश दीपक अभी कहाँ हैं. सात जून, 2006 को अपने घर से निकले, अब तक वापस नहीं नहीं आये. आवरण पर कृष्णा सोबती लिखती हैं- ‘स्वदेश तुम कहाँ गुम हो गए. बगूगोशे के साथ फिर प्रकट हो जाओ.’ संग्रह की कहानियाँ 2000 से 2005 के बीच लिखी गयी हैं. यह वही दौर है, जब दीपक की बीमारी अपने सबसे भयावह दौर में पहुँच चुकी थी.
कुछ समय पहले जेरी पिंटो के संपादन में एक किताब आयी थी- The Book of Light: When a Loved One Has a Different Mind. इसमें संग्रहित लेखों में विभिन्न लोगों ने अपने किसी नजदीकी परिजन की मानसिक बीमारी और उससे संबंधित परेशानियों के अनुभवों को अभिव्यक्त किया गया था. हमारे देश में मानसिक बीमारियों को लेकर बहुत गंभीरता नहीं है- न तो समाज के स्तर पर, और न ही सरकार के स्तर पर. हमारी संवेदनशीलता के संकट का सबसे बड़ा उदाहरण तो यही है कि हम मानसिक रोग के लिए बने विशेष अस्पतालों को पागलखाना कहते हैं.
पिंटो की किताब में स्वदेश दीपक के बेटे सुकांत दीपक का लेख Papa, Elsewhere है जिसमें उन्होंने बेलाग होकर सबकुछ लिखा है. यहाँ तक कि जब उनके पिता गुम हुए और कुछ दिनों तक वापस नहीं आये, तो सुकांत, उनकी बहन और उनकी माँ ने राहत की साँस ली. अगर आप इस किताब को नहीं पढ़ पाते, तो सुकांत के लेख का बड़ा हिस्सा स्क्रॉल पर पढ़ियेगा.
Then on the morning of June 7, 2006, he went for a walk and never returned.
When we – my mother, my sister and I – were convinced that he was not coming back, there was a collective sigh of relief. There was almost a celebration.
अवसाद, बाइ-पोलारिटी, आत्महत्या के प्रयासों के बीच बगूगोशे की कहानियाँ लिखी गयीं. अंतिम कहानी समय खंड तो ‘पूरी’ भी नहीं है. इन कहानियों को पढ़ते हुए मैं सोच रहा था कि क्या स्वदेश दीपक गुम न हुए होते, मैंने सुकांत का लेख नहीं पढ़ा होता या फिर लेखक की बीमारी का पता नहीं होता, तो क्या पढ़ने का अनुभव कुछ और होता. हम न जाने कितना कुछ पढ़ लेते हैं बिना लेखक के बारे बहुत-कुछ जाने हुए.
एक सवाल यह भी है और साहित्य में अक्सर इस पर चर्चा भी होती है कि क्या किसी रचना को रचनाकार से अलहदा रख कर देखा जा सकता है. बहरहाल, इतना तो है कि कई बार आप स्वदेश दीपक की कहानियों में इतना रम जाते हैं कि लेखक गुम हो जाता है, पर बार-बार लौट भी आता है. शायद स्वदेश दीपक असल जीवन में भी किसी दिन लौट आयें, और सही-सलामत लौट आयें. इस संग्रह को इसलिए भी पढ़ा जाना चाहिए ताकि हमें अपने वर्तमान के उन अँधेरे कोनों, असुरक्षा के भय और तमाम आशंकाओं का संज्ञान हो सके, जिन्हें हम लगातार देखते-बूझते भी नजरअंदाज़ करते रहते हैं.
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