विविध कला-रूपों में प्रेम हमेशा से एक केंद्रीय तत्व रहा है. आधुनिक युग में जब सिनेमा आया, तो उसने भी प्यार को अपना मुख्य विषय बनाया. इसके लिए उसने लैला-मजनूँ, हीर-राँझा, शीरीं-फ़रहाद, सोहनी-महिवाल, रोमियो-जूलियट जैसी लोक, साहित्य और रंगमंच में प्रचलित कहानियों को अपना आधार बनाया. ये और ऐसी अनेक कहानियाँ हमारी सांस्कृतिक विरासत में हैं, पर शायद सबसे ज़्यादा असर लैला-मजनूँ की कहानी का रहा है.
सबसे पहले मूक फ़िल्मों के दौर में मदान थिएटर के बैनर से 1922 में लैला-मजनूँ की कहानी को परदे पर उतारा गया. पाँच साल बाद मणिलाल जोशी ने भी इस पर एक फ़िल्म बनायी. तीस के दशक के शुरू में सवाक फ़िल्में बनाने लगी थीं. पहले ही साल लैला-मजनूँ पर दो फ़िल्में बनीं. एक का निर्माण कांजीभाई राठौर ने किया था और दूसरी मदान थिएटर के जेजे मदान ने बनायी थी. क़रीब डेढ़ दशक बाद नय्यर और नज़ीर ने इस त्रासद प्रेम कहानी को एक बार फिर से हिंदी में निर्देशित किया. इसी बीच फ़ारसी, पंजाबी और पश्तो भाषाओं में भी लैला और मजनूँ की दास्तान के सिनेमाई संस्करण बना चुके थे. नय्यर और नज़ीर की फ़िल्म को बड़ी सफलता मिली थी. इसमें मजनूँ की भूमिका भी नज़ीर ने निभायी थी और लैला के किरदार में स्वर्णलता थीं. इस फिल्म में मशहूर चरित्र अभिनेता केएन सिंह और हास्य अभिनेता गोप ने भी अभिनय किया था. साल 1949 और 1950 में इस कहानी पर तेलुगू और तमिल भाषाओं में फ़िल्में बनीं.
निर्देशक के अमरनाथ ने 1953 में शम्मी कपूर और नूतन को मुख्य भूमिकाओं में लेकर लैला-मजनूँ बनायी थी. संगीत ग़ुलाम मोहम्मद और सरदार मलिक का था. अपने दौर के अगली क़तार के फ़ोटोग्राफ़र वी अवधूत इसके कैमरामैन थे. इस फिल्म को भी दर्शकों की सराहना मिली, जिससे शम्मी कपूर और नूतन के कैरियर को मज़बूती मिली. बाद के दिनों में बाल, किशोर और हास्य भूमिकाओं में बड़ा नाम कमानेवाले जगदीप ने भी इसमें काम किया था, पर क्रेडिट में कहीं उनका उल्लेख नहीं मिलता है.
साल 1974 में आरएल देसाई की फ़िल्म ‘दास्ताने-लैला-मजनूँ’ आयी, जिसमें मुख्य किरदार कँवलजीत सिंह और अनामिका ने निभाया था. इस फ़िल्म में जाँ निसार अख़्तर ने गीत लिखे थे और संगीत इक़बाल क़ुरैशी का था. फ़िल्म चल नहीं पायी और जल्दी ही भूला दी गयी. इसके बाद 1976 में कपूर ख़ानदान के ऋषि कपूर को मजनूँ बनने का मौक़ा मिला. एचएस रवेल द्वारा निर्देशित इस फ़िल्म में रंजीता ने लैला की भूमिका निभायी थी. इस फ़िल्म को लिखने में अबरार अल्वी ने निर्देशक का सहयोग किया था, तो संगीत मदन मोहन और जयदेव ने दिया था. इस फिल्म पर काम करने के दौरान मदन मोहन का निधन हुआ था और जयदेव को बाक़ी ज़िम्मा संभालना पड़ा था. यह रंजीता की पहली फ़िल्म थी और ऋषि कपूर स्टारडम की ओर क़दम बढ़ा ही रहे थे. साहिर लुधियानवी के लिखे तथा मोहम्मद रफ़ी और लता मंगेशकर के गाये फ़िल्म के गाने बेहद लोकप्रिय हुए थे. इन्हें आज भी बड़े चाव से सुना जाता है.
साल 1984 में सावन कुमार की फ़िल्म ‘लैला’ आयी, पर इसका लैला-मजनूँ की कहानी से लेना-देना नहीं था. यह रोमियो-जूलियट की कथा के अधिक निकट है. पिछले साल साजिद अली की लैला-मजनूँ आयी थी. इससे पहले की फ़िल्मों का आधार 12 वीं सदी के फ़ारसी कवि निज़ामी की रचना थी. परंतु साजिद अली ने इसे वर्तमान परिवेश में ढालने की कोशिश की थी और कुछ तत्व सिनेमा की अन्य प्रचलित कहानियों से भी लिया था. हालाँकि फ़िल्म अच्छी बनी थी, पर इसे पसंद नहीं किया गया.
परदे पर लैला-मजनूँ की कहानी के आसिफ़ (मुग़ल-ए-आज़म) की ‘लव एंड गॉड’ के बिना पूरी नहीं हो सकती. साठ के दशक में बननी शुरू हुई यह फ़िल्म 1986 में ही रिलीज़ हो पायी. यह प्रकरण भी लैला-मजनूँ की तरह त्रासद है. आसिफ़ ने पहले गुरुदत्त और निम्मी को लेकर इसे 1963 में बनाना शुरू किया था, पर अगले साल गुरुदत्त का देहांत हो गया. साल 1970 में संजीव कुमार को मजनूँ की भूमिका देकर उन्होंने फ़िल्म को आगे बढ़ाने की कोशिश की, पर अगले साल उनका असमय निधन हो गया. डेढ़ दशक बाद उनकी पत्नी अख़्तर आसिफ़ ने निर्माता-निर्देशक केसी बोकाड़िया के सहयोग से अधूरी फ़िल्म को ही रिलीज़ कर दिया. इसके एक साल पहले संजीव कुमार भी चल बसे थे. गानों को आवाज़ देनेवाले मोहम्मद रफ़ी, मुकेश और तलत महमूद भी तब इस दुनिया में नहीं थे. ’लव एंड गॉड’ का संगीत नौशाद ने दिया था, संवाद वजाहत मिर्ज़ा ने तथा गीत ख़ुमार बाराबंकवी ने लिखा था.
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