आज जब देश के बहुत बड़े हिस्से में सूखे की स्थिति है और मॉनसून बेहद कमज़ोर है, पानी की उपलब्धता और वितरण को लेकर चिंताएँ जतायी जा रही हैं. इस संकट में एक बार फिर से सालभर पहले आयी (14 जून, 2018) नीति आयोग की एक रिपोर्ट- कंपोज़िट वाटर मैनेजमेंट इंडेक्स– में दिए गए तथ्यों की चर्चा की जा रही है. इन तथ्यों की विश्वसनीयता और इनके स्रोतों के बारे में पिछले साल पर्यावरण कार्यकर्ता श्रीपाद धर्माधिकारी ने ‘इंडिया टूगेदर डॉट ऑर्ग’ पर (1 जुलाई, 2018) सवाल उठाते हुए बताया था कि इसे तैयार करने में अधिक गंभीरता की दरकार थी.
इस साल पानी का अभूतपूर्व अभाव है. ऐसे में स्वाभाविक है कि हमारी मीडिया भी बिना जाँचे-परखे नीति आयोग जैसी शीर्ष सरकारी संस्था की उस रिपोर्ट की सनसनीख़ेज़ बातों को फिर से सूर्ख़ियों में जगह दे. पिछले साल की तरह इस बार भी हमें बताया जा रहा है कि आधी आबादी को पानी नहीं मिल रहा है, घरों में पानी की आपूर्ति नहीं है, क़रीब दो दर्ज़न शहरों में अगले साल भूजल नहीं बचेगा. पिछले साल इस रिपोर्ट पर बात करते हुए धर्माधिकारी ने कहा था कि इन तथ्यों से यह इंगित होता है कि देश में पानी की कमी है और इस बाबत कुछ ठोस उपाय होने चाहिए, लेकिन सवाल यह उठता है कि अपुष्ट आधारों और भ्रामक स्रोतों से सूचनाएँ और आँकड़े लेकर क्या हम संकट का ठीक से आकलन कर पाएँगे और जब समस्या को ही ठीक से नहीं समझा जाएगा, तो फिर समुचित समाधान कैसे हो सकेगा.
‘द वाशिंगटन पोस्ट’ की भारत में ब्यूरो प्रमुख जोऐना स्लैटर ने बीते 28 जून को ट्वीटर पर नीति आयोग की उस रिपोर्ट में उल्लिखित तथ्यों को फिर से पड़ताल की है. धर्माधिकारी और स्लैटर की बातों को यहाँ संक्षेप में बताने की कोशिश की गयी है. स्लैटर स्पष्ट कहती है कि जल संकट वास्तविकता है, जैसे कि इस साल चेन्नई में भूजल सूख चुका है, किंतु नीति आयोग के शहरों में भूजल समाप्त होने के तथ्य भ्रामक हैं. नीति आयोग की रिपोर्ट स्रोत के तौर पर वर्ल्ड रिसोर्सेज इंस्टीट्यूट, विश्व बैंक, हिंदुस्तान टाइम्स और द हिंदू का उल्लेख करती है, पर 21 शहरों में 2020 में भूजल समाप्त होने के तथ्य का स्रोत वर्ल्ड रिसोर्सेज इंस्टीट्यूट नहीं है. इस संस्था से दूसरा तथ्य लिया गया है कि भारत में 56 फ़ीसदी कुओं (उन कुओं में से जिनका सैम्पल किया गया) का अध्ययन इंगित कर रहा है कि जलस्तर लगातार घटता जा रहा है. स्लैटर आगे बताती हैं कि विश्व बैंक ने भारत में पानी के बारे में दो बड़ी रिपोर्ट दी है- एक 2005 में और दूसरा 2010 में. इन दोनों ही रिपोर्टों में 2020 में 21 शहरों में भूजल ख़त्म होने का तथ्य नहीं दिया गया है. स्लैटर ने विश्व बैंक से सीधे पता किया, पर संस्था ने इस तथ्य के स्रोत के बारे में जानकारी देने में असमर्थता जतायी.
आगे कहानी और दिलचस्प होती है. स्लैटर ने पाया कि दो अख़बारों ने 2017 और 2018 में विश्व बैंक का हवाला देते हुए इन तथ्यों की रिपोर्टिंग की थी, लेकिन उन्होंने किसी भी रिपोर्ट का संदर्भ नहीं दिया था. स्लैटर कहती हैं कि ऐसी कोई रिपोर्ट है नहीं, तो संदर्भ कैसे देते. हिंदुस्तान टाइम्स और द हिंदू के इन्हीं अपुष्ट अख़बारी रिपोर्टों को नीति आयोग ने तथ्य मानते हुए अपनी रिपोर्ट में छाप दिया. धर्माधिकारी ने पिछले साल के लेख में उचित ही कहा है कि अख़बारों और न्यूज़ पोर्टलों से तथ्य उठाने की जगह नीति आयोग जैसी आधिकारिक संस्था को आधिकारिक रिपोर्टों या अकादमिक पब्लिकेशनों ने तथ्य लेना चाहिए.
स्लैटर ने नीति आयोग से भी विश्व बैंक की उस रिपोर्ट के बाबत पूछा, पर वे नहीं बता सके. आयोग ने उनसे कहा कि इस तथ्य का स्रोत विश्व बैंक की रिपोर्ट नहीं है, बल्कि इसे भारत के केंद्रीय भूजल बोर्ड से लिया गया है. इसके बाद स्लैटर ने बोर्ड से संपर्क किया, पर बोर्ड ने ऐसे किसी आँकड़े का स्रोत होने से इनकार कर दिया और कहा कि वे इसे सत्यापित नहीं कर सकते हैं. इस पर नीति आयोग ने स्लैटर को बोर्ड के एक विश्लेषण का संदर्भ दिया और कहा कि आँकड़े वहीं से निकाले गए हैं. दिलचस्प बात यह है कि केंद्रीय भूजल बोर्ड की उस रिपोर्ट में शहरों का ब्यौरा नहीं है, बल्कि ज़िले के हिसाब से सांख्यिक आँकड़े दिए गए हैं. इसके बाद नीति आयोग ने एक चार्ट दिया और कहा कि इससे शहरों के बारे में उस निष्कर्ष को समझा जा सकता है. उस चार्ट में भूजल के इस्तेमाल के आँकड़े हैं. इस चार्ट के मुताबिक 2013 में ही 20 शहरी ज़िलों में (जिनमें 12 बड़े शहर हैं) भूजल का दोहन उसके रिचार्ज की गति की तुलना में बहुत तेज़ी से हो रहा था. निश्चित रूप से इस रवैए से भूजल कम या ख़त्म होने का ख़तरा है. लेकिन, स्लैटर यह भी कहती हैं कि इस चार्ट में बहुत गहरे सोतों और सतह के पानी (जलाशय, झील आदि) का हिसाब नहीं है. उनका कहना है कि आँकड़ों के इस विश्लेषण को उन्होंने उस व्यक्ति से भी सत्यापित कराया है, जिसने इस चार्ट को तैयार किया था.
इस चर्चा के आख़िर में स्लैटर एक बार फिर कहती हैं कि भूजल के बेतहाशा इस्तेमाल से भारत के सामने पानी का संकट है, परंतु नीति आयोग ने जिस तरह से इसे रेखांकित करने की कोशिश की है, वह सही तरीक़ा नहीं है. स्लैटर की इस चर्चा की सराहना करते हुए इंडियन एक्सप्रेस से जुड़ीं पत्रकार सौम्या अशोक ने ट्वीटर पर लिखा है कि उन्होंने पिछले साल नीति आयोग की इस रिपोर्ट के स्रोतों और संदर्भों पर बहुत समय खपाया था और पाया था कि उसमें 27 मीडिया रिपोर्टों, ब्लॉग पोस्टों, ट्वीटर, सिविल सर्विसेज़ की तैयारी करानेवाली एक वेबसाइट और एक इज़रायली पत्रिका का हवाला दिया गया था. कुल 94 फूटनोट में सिर्फ़ नौ में सरकारी स्रोतों का हवाला दिया गया है. धर्माधिकारी ने भी इस चर्चा में अपने लेख का उल्लेख किया है.
बहरहाल, इस सरकार और नीति आयोग के लिए आँकड़ों, तथ्यों और सूचनाओं में लापरवाही बरतने, छुपाने या तोड़-मरोड़कर कर उन्हें पेश करने के आरोप पहली बार नहीं लगे हैं. कई मामलों में तो तथ्य न तो जुटाए जा रहे हैं और न ही उन्हें ठीक से सार्वजनिक किया जा रहा है. सकल घरेलू उत्पादन की वृद्धि दर, किसानों की आत्महत्या, राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो की रिपोर्टों का अपडेट, बेरोज़गारी दर आदि अनेक मामलों में इस रवैए को देखा जा सकता है.
जहाँ तक पानी पर पिछले साल आयी नीति आयोग की इस रिपोर्ट का मसला है, तो हमें श्रीपाद धर्माधिकारी की कुछ बातों का भी संज्ञान लेना चाहिए. आयोग के सीईओ अमिताभ कांत ने तब इस रिपोर्ट को पानी के मामले में डेटा-आधारित निर्णय लेने की दिशा में बहुत बड़ा क़दम बताया था. अब डेटा कैसे जुटाया गया है, इस बारे में तो ऊपर बात हो चुकी है. धर्माधिकारी यह भी याद दिलाते हैं कि पिछली सरकारें भी जल संसाधन सूचना तंत्र के माध्यम से सार्वजनिक रूप से आँकड़े और सूचनाएँ देने का पहल करती रही हैं. रिपोर्ट बड़े बाँधों के नकारात्मक प्रभावों का संज्ञान नहीं लेती है. इसमें पानी की गुणवत्ता और प्रदूषण, नदियों के बहने और जीवित होने, राज्यों में समुचित बँटवारा, सिंचाई-संपन्न खेती के अलावा पानी आधारित जीविका के अन्य साधन आदि जैसे महत्वपूर्ण संकेतक इस रिपोर्ट में नहीं हैं. अनेक संकेतकों के मापन में भी समस्या है. एक बड़ी कमी है कि आयोग इस रिपोर्ट को तैयार करने के लिए बाहरी स्रोतों पर बहुत अधिक निर्भर है, और, जैसा कि ऊपर के विवरण से साफ़ है, इस चक्कर में अपुष्ट, भ्रामक और सतही सूचनाएँ डाल दी गयी हैं. आयोग अगर सचमुच में कोई सरकारी थिंक टैंक है, तो उसे कुछ शोध और अनुसंधान पर भी मेहनत करनी चाहिए, न कि सेमिनार कराने का मंच बनकर रह छाना चाहिए. उसे सरकार पर भी दबाव बनाना चाहिए कि वह अपने बोर्डों और एजेंसियों को ज्ञान-विज्ञान से जुड़े विषयों पर जानकारी जुटाने के लिए सक्रिय करे.