पुस्तक: आदि शंकराचार्य: हिंदू धर्म के महान विचारक
लेखक: पवन कुमार वर्मा
प्रकाशक : वेस्टलैंड बुक्स (यात्रा)
हमारी वर्तमान सार्वजनिकता में विभिन्न रूपों और अभिव्यक्तियों में धर्म की अतिशय उपस्थिति है. इसमें कर्मकांडों, आस्थाओं, मान्यताओं, व्याख्याओं और व्यवहारों का बहुल तो है, परंतु दार्शनिकता का घोर अभाव है. हिंदू धार्मिक परंपरा में दर्शन और उससे जुड़े शास्त्रार्थ, विवाद और संवाद सर्वाधिक महत्वपूर्ण तत्व हैं. ये तत्व ही धर्म की व्यापकता और विपुलता के विशिष्ट आधार हैं. अपनी नयी पुस्तक ‘आदि शंकराचार्यः हिंदू धर्म के महानतम विचारक’ में पवन कुमार वर्मा ने इन बातों को प्रभावी ढंग से रेखांकित करने का प्रयास किया है. वर्मा कूटनीति के क्षेत्र में लंबा समय बीता चुके हैं और कुछ वर्षों से राजनीति में सक्रिय हैं तथा समसामयिक विषयों पर उनकी गहन टिप्पणियां निरंतर प्रकाशित होती रहती हैं, पर उनकी मुख्य पहचान समाज, संस्कृति और साहित्य से संबंधित अनेक पुस्तकों के लेखक की है. इस पुस्तक में वे शंकराचार्य के जीवन और दर्शन को समझने-समझाने के क्रम में उनकी विरासत और प्रासंगिकता की पड़ताल भी करते हैं.
लेखक ने केरल, कश्मीर, केदारनाथ, काशी, पुरी, द्वारका, मध्य देश, प्रयाग आदि उन सभी स्थानों का भ्रमण कर शंकराचार्य की तीन दशक की जीवन-यात्रा का भावपूर्ण रेखाचित्र प्रस्तुत किया है. उस यायावर संत के विचारों को जिस सारगर्भित ढंग से वर्मा ने रखा है, उससे उनकी अध्ययनशीलता और शोधधर्मिता का परिचय मिलता है. शताब्दियों पूर्व एक युवा साधक की स्थापनाओं और आधुनिक विज्ञान के जटिल संधानों के साम्य को बांचता अध्याय शंकर की आवश्यक प्रासंगिकता को संसूचित करता है. उनके रचना-संसार से विशेष चयन कर अर्थ और टीका के साथ प्रस्तुत कर वर्मा ने भारत के उत्तर, दक्षिण, पूर्व और पश्चिम के चार बिंदुओं पर मठों की स्थापना और धार्मिक विविधता को सामंजस्य के सूत्र में पिरोनेवाले महान विचारक का संपूर्ण स्वरूप हमारे सम्मुख रख दिया है.
शंकराचार्य जैसे अद्भुत मनीषी के साथ नाना प्रकार के मिथकों और किंवदंतियों का जुड़ जाना कोई अचरज की बात नहीं है. आठवीं शताब्दी और इक्कीसवीं शताब्दी के बीच समय की यात्रा में ऐसा होना स्वाभाविक है. शंकर के मिथकों और आख्यानों को ऐतिहासिक तार्किकता के साथ संतुलित करना भी पुस्तक की एक विशेषता है. हिंदू वैचारिकी में टीका-परंपरा का बहुत महत्व है. टीकाकार का कार्य मात्र दार्शनिक विवेचना और अर्थ-संधान नहीं होता है, वह अपनी पीढ़ी के लिए विगत की सुलभ, सरल और समयोचित व्याख्या भी करता है. कई दशकों या संभवतः शताब्दियों से यह परंपरा जड़ है या फिर वह परिवर्तित होते देश और काल के अनुरूप नहीं है. ऐसे में नयी पीढ़ी के लिए यह पुस्तक एक आवश्यक उपहार है.
धर्म के ही नहीं, बल्कि विज्ञान और आधुनिकता के सतही पाठ से भी हमारा वर्तमान ग्रस्त और त्रस्त है. इस स्थिति में किसी कपोल-कल्पित भूत में लौट जाने या उससे सांत्वना पाने का विकल्प या पुरातन को पूरी तरह अस्वीकार कर देने का उपाय विवेक के विनाश को आमंत्रण है. प्रश्न शंकराचार्य को मानने या न मानने का नहीं है, आवश्यकता उनकी पद्धति, प्रणाली और प्रक्रिया से परिचय की है. पवन कुमार वर्मा की यह पुस्तक यही प्रस्तावित करती है. ऐसा नहीं हुआ, तो स्वयंभू संरक्षकों की हिंसक मूढ़ता के हाथों धार्मिकता और दार्शनिकता को नष्ट होते देखना हमारी अभिशप्त नियति होगी.
(14 अक्टूबर, 2018 को ‘प्रभात खबर’ में प्रकाशित)
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